Saturday, 30 November 2013

एहसास


जब भी एहसास इतने गहरे हुए 
कि ज़ुबान बयाँ न कर सके 
मुझे मेरा मौन अच्छा लगा
लहरों की आवाज़ और पंछी की चहक अच्छी लगी
और लगा की खुद के होने के अहम से
कहीं अच्छा है, खुद के न होने  का एहसास 

Thursday, 24 October 2013

ओ साधु रे ........













ओ साधु रे ........
ओ साधु रे ........

साधु नाम पाया, लेकिन जिया कहाँ रे.
रे साधु जिया कहाँ रे.

साधु मन पाया, लेकिन बचा कहाँ रे.
रे साधु बचा कहाँ रे.

जले तन तपे मन तो साधु बना रे.
हाँ साधु बना रे.

दुनिया के फेरे में फिर जाने कहाँ रे.
साधु जाने कहाँ रे.

मन फेरा साधु तो तूँ बचा कहाँ रे.
साधु बचा कहाँ रे.

फिर से जी ले जीवन ज़रा ओ प्यारे.
साधु हो जा रे.

तन से न बन, बन मन से साधु रे.
ओ साधु रे ....
ओ साधु रे ....



Friday, 11 October 2013

दर्द यूँ भी अदाओं से कम निकलता है.

यमुना प्रसाद दूबे 'पंकज' जी ने आग़ाज किया था उसी को अंजाम देने की कोशिश है 

ग़ज़ल का मतला,ख़ास आप की महफिल के लिये
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
रूह जलती है,तब पिघलता है।
दर्द,यॅू ही नही निकलता है।














चाँद और हम काँपते है रात भर छत पर;
वो मेरा चाँद है जो बहुत कम निकलता है.

हँसते है हम भी नमी आँखों में ले कर;
दर्द यूँ भी अदाओं से कम निकलता है.

तुम मिलोगे तो करेंगे बहुत सारी बातें;
देखो किस दिन ये मुक़द्दर मेरा निकलता है.

हाँ दर्द से मेरे सभी ही हैं थोड़ा संजीदा;
कि गैर के दर्द से जान कब निकलता है.

हो गयी शाम जब जिंदगी की ढलते ढलते;
'मुसाफिर' फिर कोई घर से कहाँ निकलता है.

Friday, 13 September 2013

बहुत अदना सा रह गया है इंसान

बहुत अदना सा रह गया है इंसान
तुम्हारे अल्लाह और तुम्हारे भगवान के आगे
उसे मरना पड़ता है
कभी तुम्हारे अल्लाह के नाम पर
कभी तुम्हारे भगवान के नाम पर
और जब कोई कहता है
कि तुम मार दो अपने अल्लाह को
और तुम भी मार दो अपने भगवान को
जिसे एक इंसान ने पैदा किया था
तो तुम दोनों मिलकर मार देते हो उस इंसान को
क्यों की खुद इंसान होकर भी
तुम्हे लगता है तुम्हारा अल्लाह बड़ा है
तुम्हारा भगवान बड़ा है.

Monday, 9 September 2013

देहिये के भेद न जाने इ देहिया



गईया बछरुआ मोहे मन भाए ...
कि जाने कौने माटी से बनल ई देहिया ...
जबे हम सोची इहे मन आवे ...
जाने कौने माटी मे मिलि जाई देहिया ...
तानिको न भाए मोहे ई दुनिया ..
भागी के जाई तो जाई कहाँ देहिया ....
जाने कइसन आतमा कइसन परमातमा ..
देहिये के भेद ही न जाने इ देहिया ... 

Sunday, 18 August 2013

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है


जाने फिर क्यूँ मुझे वो याद आया;
जाने फिर क्यू ये ख़याल आया.

जिस्म दो हैं, उसका और मेरा; 
जिसमें बसता है एक ही साया.

सुबह और शाम एक ही तो है;
बस ज़रा वक़्त का फासला पाया.

बेमियादी चाहतो का मतलब;
तो मौत के बाद ही समझ आया.

जब भी उसकी याद से लिपटा;
मैं खुद का कहाँ फिर रह पाया.

जितना दौड़ा पहुँचने को उस तक ;
खुद को उतना ही दूर मैं पाया.

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है;
'मुसाफिर' चाहकर न ज़ी पाया.



Saturday, 17 August 2013

शब्दों के खिलाड़ी














वो एक वक़्त था
जब उनके मन में थी एक आग
आग दुनिया को बदलने कि
या कि आग प्रेम की
खुद की दुनिया बदलने की
ऐसे समय में लिखे गये शब्द
जिनका एक अलग विन्यास था
वो 'कविता' थी
वक्त के साथ आग बुझने लगी
वक़्त के साथ कवितायें खोने लगी
पर शब्दों से खेलने का हुनर तब तक आ चुका था
अब मैं उन्हे शब्दों से खेलते देखता हूँ
वो आग जिसकी बात 'दुष्यंत कुमार' करते है
वो आग ख़त्म हो चुकी है
वो अब शब्दों के खिलाड़ी है
और वो खुद को 'कवि' कहलाना पसंद करते है

Friday, 7 June 2013

मैं अब भी समझता हूँ वो मेरा गैर नहीं.













वो मुझ से पूंछते हैं मेरा नाम, बेपरवाह;
जिन्हे मैं अब भी समझता हूँ मेरे गैर नहीं.

सुकून छीनता है जो अब भी मेरे दिल का;
वही जालिम है समझता हूँ कोई गैर नहीं.

मैं अब बताउँ जमाने को, तो बताउँ क्या;
मेरा मुंसिफ, मेरा कातिल, है मेरा गैर नहीं.

अजीब दौर से गुजर रहा हूँ जिंदगी के मैं;
कटा हुआ है, मेरा हिस्सा, है कोई गैर नहीं.
(कट के मुझ से अलग हुआ, है कोई गैर नहीं.)

दर्द मिला है 'मुसाफिर' जो जिंदगी के सफ़र में;
अब तो वो दर्द भी अपना है, है कोई गैर नहीं.

Sunday, 26 May 2013

मौन सहमति नही थी, विरोध था।














मौन सहमति नही थी, विरोध था।
पर तुम मौन नही समझते,
तुम भूख और तड़प नही समझते।
नही सुना तुमने जब मौन
तब हमने लिया है सहारा बंदूको का,
ताकि तुम्हारे कान खुल सके।
तुम्हे भी महसूस हो पीड़ा अपनों को खोने की,
पर शायद तुम्हें शरीर की भूख और अपनों का दर्द ही समझ आता है।
ऐसे मे हम कहाँ जायें,
तो ऐसे में हमारी बंदूके हमारी आवाज़ है,
इनसे चली गोलियां शायद तुम्हें याद दिला सकें की हमारे लोग भी यूं ही तड़प के मरे थे,
तुम्हारी गोलियों से।
और उनका कसूर सिर्फ ये था की वो तुम्हारी तरह पढ़ें लिखें नहीं थे।
वो इंसान तो थे पर तुम जैसे धूर्त नहीं थे।
उन्हें अपनी मिट्टी से प्रेम था,
जिसका तुम सौदा करना चाहते थे।
सत्य यही है, तुम इस देश का भी सौदा कर सकते हो।

Thursday, 28 March 2013

गम की धूप, छाँव खुशी की मिली होती


गम की धूप, छाँव खुशी की मिली होती;
थोड़ा आसमान थोड़ी ज़मीन मिली होती.

कहाँ माँगता हूँ,चाँद मिले आँचल में;
चाहतें थी थोड़ी रोशनी मिली होती.

दौड़ता भागता रहा जिंदगी के लिए;
दौड़ते भागते ही जिंदगी मिली होती.

तुम से बेहतर यक़ीनन कोई  ख़याल न था;
हक़ीकत में भी अगर तुम कहीं मिली होती.

अमीरी भी 'मुसाफिर' को मिल गयी होती;
मुसाफ़िरी जो कहीं फकीरों की मिली होती.

Tuesday, 26 March 2013

शुभ होली
















हंस हंस के
फिर हँसी ठिठोली

उड़ी गुलाल
रंग भी घोली

चिल्ला के
बच्चों की टोली

बोली ज़ोर से
फिर ये बोली

बचना मना
न दो अब गोली

रंग पड़ेगा तब बोलेंगे
शुभ होली-शुभ होली

रंगरेजवा

मोरे रंगरेजवा 
तोरे बिना होली बेकार रे!

गूलर जइसन लाल,
कनेरवा जइसन पीयर,
कई दे मनवा हरियर पीयर,
तोरे बिन सब रंगवा भईल बेकार!
मोरे रंगरेजवा 
तोरे बिना होली बेकार रे!

तन तो रंगाई,
मोरा मन न रंगाई,
मन के रंगाए बिना,
सब बेकार रे!
मोरे रंगरेजवा 
तोरे बिना होली बेकार रे!

नील ई आकाशवा,
हरियर धरतिया,
तोहरे ही रंग मे गईल सब रंगाई रे!
मोरे रंगरेजवा 
तोरे बिना होली बेकार रे!

सांवर भय तो जाईसे किशन के लेखिन,
मन रंग दे कि जैसे उजियार रे!
मोरे रंगरेजवा 
तोरे बिना होली बेकार रे!

Wednesday, 13 March 2013

सोचता हूँ आया था क्या ले कर

सोचता हूँ आया था क्या ले कर;
जाऊंगा जहाँ को मैं क्या दे कर.

मिलने का अंदाज अलग होता है;
लोग वो मिलते है फासला ले कर.

शाम ढलती है मैं भी ढलता हूँ;
फिर सम्हलता हूँ हौसला ले कर.

दुनिया में इंसान वो भी होते हैं;
खुश होते है दर्द किसी का ले कर.

जब दर्द सीने का हद से पार हुआ;
ज़मीन आती है ज़लज़ला ले कर.

तुम 'मुसाफिर',ये जिंदगी है सफ़र;
चलो काँधे पे सलीब अपना ले कर.

Thursday, 28 February 2013

माँ फिर से अपना आँचल कर दो



कितने सारे दर्द हैं
जिनको जीता हूँ
दुनिया कहती है
मैं बड़ा हो गया हूँ
खुश होता हूँ मैं
जब बच्चा होता हूँ
माँ फिर से अपना आँचल कर दो
माँ मुझ को फिर से बच्चा कर दो

आदमी भी बिक रहा है














हमारे बाजार बड़े हुए हैं 
खरीद फ़रोख़्त बढ़ गयी है
अब तो आदमी भी बिक रहा है
और उसका जमीर भी
सिक्के भारी होते थे
फिर भी नहीं खरीद पाते थे आदमी को
या कि उसके जमीर को
ये नया दौर है
वक़्त की तराजू में तौल दिए जाते है
हलके नोटों के बदले
हलके होते आदमी और उनका जमीर

Wednesday, 27 February 2013

फगुआ में रंग सबहु के लागी

एनहू के लागी ओनहू के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

देवरो के लागी जेठओ के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

ससुरो के लागी ससुयो के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

जवनको के लागी बुढाओ के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

चाहे केहू हाँसे चाहे केहु रोए;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

डेराइब नाही लजाइब नाही;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

चढ़ल बा फगुआ के बोखार हो सजनी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

Tuesday, 26 February 2013

मित्र अभिनव की एक कविता पढ़ने के बाद आए विचारों से उत्पन्न एक कविता

बुख़ार की चादर ओढ़कर सोये//एक हफ्ते से ज्यादा का वक़्त बीत चुका है.//आई ऐसे जैसे Camus के अभागे Stranger को सजा मुकर्रर कर दी गयी हो//वक़्त-बेवक्त टीसती है एक बीच से शुरू हुई कविता की तरह //इच्छाएं अगर स्थिर होती हैं तो उनमें कोई रंग नहीं होते//बुख़ार का रंग हल्का पीला होता है //बुख़ार बहुत गहरा हो तब भी//पर बुख़ार योग नहीं है. //ऐसे में इच्छाएं अपने केंद्र के चारों तरफ //या इधर उधर //इस तरह धीरे धीरे चक्कर लगाती हैं //जैसे हो गया हो उनका वीर्यपात //माथे पर स्वेद-बिंदु अलग अलग देशों के मानचित्र बनाते हैं //आये कोई राजकुमारी और जीत ले जाये सारा राजपाट.//हालाँकि मुझे ज्यादा तकलीफ खाँसने से है // तुम्हारा नाम भी तो कितना कठिन है //खांसते हुए ठीक से उच्चार नहीं पाता//खांसी नाम के जैसी संज्ञा नहीं है, पर है तो ध्वनि ही // ध्वनियाँ एक दूसरे की सौत बन गयी हैं.//मेरे संतूर से भी अब यदा कदा कुछ खांसती हुई ध्वनियाँ निकलती हैं //ध्वनियों का अलग अलग कोणों पर //अलग अलग समय से खुलना //खांसी को संगीत से अलग करता है.//दवा बदल दी है मैंने//कहते हैं पहली वाली से ज्यादा असरदार है//ठीक होने के रास्ते खुले रखना //हमेशा स्वार्थ नहीं होता. ~अभिनव.



तुम्हारे बुखार को धन्यवाद ........
मैं एक बार को कहूँगा अच्छा है,
कभी कभी बुरा वक़्त भी अच्छी सौगात दे जाता है ...........
और की वस्तुओं के लिए हमारा नज़रिया बदल जाता है
फिर चाहे बुखार हो, खाँसी हो, संगीत हो, पसीने की बूँद हो,
असरदार दवा हो, तुम्हारा संतूर हो, इच्छायें हो,
या की वीर्यापात हो.. सब कुछ .......
एक अच्छी कविता के लिए तुम्हे बधाई .........
वो एक ऐसा मेहमान है जो तोहफा लेकर आया है,
पर उसे समझा दो मेहमान है जल्दी से लौट जाए,
ज़्यादे दिन रहा तो उसका अच्छा इलाज करना पड़ेगा.
अब दोस्त थोड़े ही है
कि तुम उसे बार-बार कहो 'रुक ना' 'कहाँ जा रहा है'
'चल लंका गेट तक साथ घूम कर आते हैं'
'आज चाय तेरी तरफ से'
वो हॉस्टिल मे आए पेरेंट्स की तरह है'
जल्दी भगा देने में ही अच्छाई है.
वरना हॉस्टल की गालियाँ
तुम्हारे गर्लफ्रेंड की आवाज़ (फ़ोन पर बातें) सब बदल जायेंगी.

जिंदगी के कुछ पन्ने कोरे ही रह जाने दो.

"जीवन के कुछ दिन ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे किसी कापी में कुछ पन्ने यूँ ही कोरे छूट गए हों ....... !!"
फेसबुक पर  रवीन्द्र कुमार शर्मा जी की इस लाइन का असर है ये ........... अब और क्या कहें........


सांस आने दो थोड़ी हवा आने दो;
कुछ दिनों को बस यूँ ही गुजर जाने दो.

मन के पेड़ों पर है, यादों के पत्ते बहुत;
हवा से मिल के गीत पत्तों को गाने दो.

जो शाम गुज़री थी मन बहुत भारी सा था;
ओस की बूंदे ज़रा आँखों से झर जाने दो.

जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने;
बेवजह ही यूँ ही बस कोरे ही रह जाने दो.

मानता हूँ 'मुसाफिर' को चलना है बहुत;
चलते चलते उसे थोड़ा तो ठहर जाने दो.

Monday, 25 February 2013

देखता हूँ ये कैसी मेरी लाचारी है.

देखता हूँ ये कैसी मेरी लाचारी है.
दिल की दरख्तों में तस्वीर तुम्हारी है;

कच्ची अमिया खाने का भी मन है;
नाकसीर फूटने की तुझको बीमारी है.

दूर जा कर भी छूट न पाएगी;
तेरे मेरे मन की लगी जो यारी है.

तुम हो तराजू लाए बाट नहीं लाये;
'प्यार' तौलने की तुम्हे बीमारी है.

कैसे मिलोगे और कहाँ ये बतला दो;
नाम की नहीं मुझको तेरी दरकारी है.

राहें रहें मिलती 'मुसाफिर' बस क्या;
मंज़िल की नहीं कोई नशातारी है.

Thursday, 21 February 2013

दिल का हाल बयाँ आँखो से कर देते हो



दिल का हाल बयाँ आँखो से कर देते हो.
बिन बोले कह देते हो कि तुम कैसे हो;

तुम अब तक घर की दीवारें देख रहे हो;
मुझ से मिलो ये तो पूंछो 'तुम कैसे हो'.

चेहरा मेरा देखोगे, न समझ सकोगे;
देखो दिल फिर न पूंछोगे 'तुम कैसे हो'.

कोई 'मुसाफिर' ही मंज़िल तक पहुँचेगा;
तुम राहों से उनका मुक़द्दर पूंछ रहे हो.

Monday, 18 February 2013

आग हो तुम

मनीषा पांडे जी की बेबाकी का कद्रदान हूँ, वो समाज और उसकी रूढ़िवादिता और झूठे आडंबर के खिलाफ हैं. वो स्त्री के प्रति समाज की कुन्द हो गयी संवेदनशीलता के खिलाफ है. वो उस समाज को खंडित करती है जहाँ स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है की वो कह सके की मुझे उस पुरुष के साथ सोने की इच्छा है वैसे ये स्वतंत्रता पुरुष को भी नहीं है, कि वो कह सके की मुझे उस स्त्री के साथ सोने की इच्छा है. सेक्स हमारे समाज मे एक परित्यक्त शब्द है, ये अलग बात है की सभी उसे जीना चाहते हैं. परंतु उनका विरोध मुझे इस मायने में ग़लत लगता है कि जिस व्यवस्था के प्रति वो विद्रोह कर रही है, वो उसी व्यवस्था से उत्पन्न है, वो भी एक परिवार में जन्मी हैं, और इसी समाज ने उन्हे यह स्वतंत्रता दी है, अपनी बात कहने की और इसी समाज मे लोग उन्हे स्वीकार रहे है वो इस समाज मे बदलाव की बात नहीं करती सोच परिष्कृत करने की बात नहीं कहती वो तो समाज को ख़त्म करने की बात करती है. इससे उनका खुद का और उन जैसी बहुत सारी स्त्रियों का अस्तित्व भी ख़तरे में है. समाज मे बदलाव का पक्षधर होना समाज से लड़ना लोगों की सोच के परिष्कृत होने की बात करना ठीक है, पर उसे ख़त्म कर देने की बात करना खुद अपने अस्तित्व को चुनौती देने जैसा है. सेक्स को लेकर हमारे समाज मे हमेशा दोहरी मानसिकता रही है, पुरुषों के सन्दर्भ में भी है, स्त्रियों के सन्दर्भ में हम बहुत ज़्यादे रूढ़िवादी रहे हैं. परंतु इसके पीछे एक गहरी सोच भी हैं, स्त्री प्रकृति के सबसे करीब है, वो वैसे ही है जैसे नदी, बहुतों को जीवन दे सकती है, परंतु प्रलय भी ला सकती है. हमारे विचारकों ने इस नदी को प्रलयनकारी होने से बचाने के लिए कुछ बातें रखी. परंतु अविवेक पूर्ण लोगों की वजह से कालांतर में वो रूढ़िवादिता में बदल गयी.
वो एक अच्छी विचारक है, वो अपनी सोच के क्रियान्वयन बदलाव ला सकती है. परंतु यूँ उर्जा व्यय करना मूर्खता पूर्ण जान पड़ता है, योजना पूर्ण तरीके से काम करें तो किसी भी जगह से शुरुआत करके वो अपनी सोच को क्रियान्वित कर सकती है. हमारी शुभकामना सदैव उनके साथ है.


आग हो तुम
कर सकती हो किसी की क्षुधा को शांत
या कि कर सकती हो भस्म
तुम्हारे ताप से निखर सकता है कुंदन
या कि पिघल कर हो सकता है वाष्पित भी
तुम नहीं जानती तुम क्या हो
तुम प्रकृति में सृजन का हो मूर्त रूप
और विध्वंश का पर्याय हो
भस्म कर सकती हो मानव सोच के बीहडों को
सृजन कर सकती हो नया स्वरूप
सम्हल कर जलने देना संवेदना की आग
वरना तुम्हारी एक ग़लती
तुम्हारे खुद के अस्तित्व को लगा देगी आग

Monday, 11 February 2013

'प्रेम' घटित होता है














पत्ते गिरते हैं पेड़ से
फिर से नये आते हैं

फूल मुरझाते हैं
नयी कोपलें फिर आती हैं

सागर में लहरें उठती हैं
और फिर सागर में मिल जाती हैं

हवायें सागर को स्पर्श करती हैं
और दूर निकल जातीं हैं

पत्तें, फूल, लहरें, हवायें
कोई कारण नहीं ढूढ़ते

यही उनका प्रेम है प्रकृति को
'प्रेम' घटित होता है ऐसे ही अकारण

Monday, 28 January 2013

ऐसा कोई तुमको मिले जो ख्वाबों में रंग भर दे

तुमसे कह दें सारी बातें, वो बातों ही बातों में;
और समझ ले सारी बातें बस आँखो ही आँखों में.

ऐसा कोई तुमको मिले जो ख्वाबों में रंग भर दे;
दे उड़ान चाहतों को और भर ले तुमको बाहों में.

तुमको कोई ऐसा मिले जो हो सागर के जैसा;
दरिया से सागर बन जाओ होकर उसकी बाहों में.

एक नया ख्वाब बुन लो मिल कर उसको एक पल को ;
लहरा के फिर झूम ही जाओ तुम जीवन की राहों में.

Tuesday, 22 January 2013

हो कितना भी गहरा तिमिर

"प्रेम जीवन के एक सबसे सुखद और अनमोल अनुभवों में से है और किसी द्वारा प्रेम किये जाने की अनुभूति तो स्वार्गिक है".   - डा. अरविंद मिश्रा 

इसी बात को आगे  बढ़ाते हुए...........

प्रेम किये जाने की अनुभूति तो स्वार्गिक है .....इसका दूसरा पहलू ये है कि.......... किसी के प्रेम मे होने की अनुभूति नैसर्गिक अनुभूति है जो उत्तरोत्तर और प्रगाढ़ होती जाती है. किसी द्वारा प्रेम किये जाने की अनुभूति नैसर्गिक नहीं हो सकती क्यों की यह बात दूसरे व्यक्ति पर निर्भर है, और जिन बातों की निर्भरता किसी व्यक्ति पर हो वह नैसर्गिक नहीं हो सकती परंतु स्वयं को प्रकृति का हिस्सा जानते हुए जो आपके हृदय में किसी के लिए प्रेम की परिणिति होती है वह आपको अनंत से जोड़ती है.

स्वर्गिक सुख की अपनी सीमाये है, नैसर्गिक सुख अनंत है.


हो कितना भी गहरा तिमिर
तोड़ ही देती है अहंकार
जब लाती है उषा
सूर्य की किरण निर्विकार.

दिन कितना भी हो नीरस
बन ही जाता है सरस
जब शाम के आने के साथ
आये आमराइयों से कोकिल रस.

समंदर से अलग लहरों का करुण क्रंदन
एक दर्द का स्पंदन
और फिर होता है
सागर से मिलकर ही शांत मन.

उम्र के किसी पड़ाव पर सयास
हो उदास मन अनायास
आनंदित होता है मन फिर
जब हो हृदय प्रेम परिणति आभास.

Monday, 21 January 2013

झूठ का कद यूँ जो बढ़ता जायेगा


झूठ का कद यूँ जो बढ़ता जायेगा;
सच बेचारा तो छला ही जायेगा.

पूंछते हो तुम मुक़द्दर मेरे देश का;
राम जाने किस तरफ को जायेगा.

और ले लिया जो नाम मैने राम का;
सांप्रदायिक कहा मुझको जायेगा.

टिकी हैं लाशों पर जिनकी गद्दियाँ;
मंत्री मुख्य प्रधान कहा जायेगा.

देश का दुर्भाग्य फिर ये देखिये;
कातिल कोई नेता भी बन जायेगा.

Saturday, 19 January 2013

सागर से गहरा होता है


सागर से गहरा होता है;
दिल का जो रिश्ता होता है।

खोजोगे फिर शहर-शहर तुम;
यहाँ कौन किसका होता है।

जान ही लोगे, देर से लेकिन;
और यहाँ क्या क्या होता है।

हमने जो सोचा होता है;
अंजाम कहाँ वैसा होता है।

हमने भी देखें हैं दुश्मन;
इंसान का इंसान होता है।

क्या खोज रहे हो बाज़ारों में;
यहाँ तो बस सौदा होता है।

तुमको मुक़द्दर चाहिये अपना;
और यहाँ पैसा लगता है।

तुम मुफ़लिस हो मेरे 'मुसाफिर';
प्यार कहाँ माँगे मिलता है।               

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...