जाने फिर क्यूँ मुझे वो याद आया;
जाने फिर क्यू ये ख़याल आया.
जिस्म दो हैं, उसका और मेरा;
जिसमें बसता है एक ही साया.
सुबह और शाम एक ही तो है;
बस ज़रा वक़्त का फासला पाया.
बेमियादी चाहतो का मतलब;
तो मौत के बाद ही समझ आया.
जब भी उसकी याद से लिपटा;
मैं खुद का कहाँ फिर रह पाया.
जितना दौड़ा पहुँचने को उस तक ;
खुद को उतना ही दूर मैं पाया.
मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है;
'मुसाफिर' चाहकर न ज़ी पाया.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार!!!
Deleteलाजवाब गज़ल ... उनकी यादें हों तो खुस कहां रह पाता है खुद ...
ReplyDeleteसहृदय आभार!!!
Deleteहौसला मिलता है ऐसे.
बहुत खूब
ReplyDeleteआभार !!!
Deleteबेहतरीन .सुन्दर अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाईयां.रक्षाबंधन की ढेर सारी शुभकामनाएं .
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !!!
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