"जीवन के कुछ दिन ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे किसी कापी में कुछ पन्ने यूँ ही कोरे छूट गए हों ....... !!"
फेसबुक पर रवीन्द्र कुमार शर्मा जी की इस लाइन का असर है ये ........... अब और क्या कहें........
सांस आने दो थोड़ी हवा आने दो;
कुछ दिनों को बस यूँ ही गुजर जाने दो.
मन के पेड़ों पर है, यादों के पत्ते बहुत;
हवा से मिल के गीत पत्तों को गाने दो.
जो शाम गुज़री थी मन बहुत भारी सा था;
ओस की बूंदे ज़रा आँखों से झर जाने दो.
जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने;
बेवजह ही यूँ ही बस कोरे ही रह जाने दो.
मानता हूँ 'मुसाफिर' को चलना है बहुत;
चलते चलते उसे थोड़ा तो ठहर जाने दो.
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