हम इंसान है
हमारी सोच
हमारे चारो तरफ कि बातों पर निर्भर करती है
बचपन से लेकर अब तक की
सारी बातों पर
हम सोच और विचार के डब्बों में बंद होते हैं
कुछ बहुत बड़े डब्बों में बंद हैं
कुछ बड़े डब्बों में
कुछ छोटे
और कुछ बेहद छोटे डब्बों में
डिब्बों का आकर हमारे आयाम तय करता है
कई बार हम अपने चारो तरफ के इस डब्बे को लोहे सा मजबूत बना देते हैं
और उससे बहार नहीं आना चाहते
हाँ कई बार दीवारें कितनी मजबूत हों
वक़्त के साथ हमारी सोच बदलती है
और एक दिन हम उनसे बहार आ ही जाते हैं
यहाँ मैंने जो लिखा
वो मेरे उपर भी लागू है
बिलकुल उसी तरह
पर हम सभी को तोडनी है
ये दीवारें
और बना लेंगे एक रास्ता
एक दिन ये होगा जरूर..........
हमारी सोच
हमारे चारो तरफ कि बातों पर निर्भर करती है
बचपन से लेकर अब तक की
सारी बातों पर
हम सोच और विचार के डब्बों में बंद होते हैं
कुछ बहुत बड़े डब्बों में बंद हैं
कुछ बड़े डब्बों में
कुछ छोटे
और कुछ बेहद छोटे डब्बों में
डिब्बों का आकर हमारे आयाम तय करता है
कई बार हम अपने चारो तरफ के इस डब्बे को लोहे सा मजबूत बना देते हैं
और उससे बहार नहीं आना चाहते
हाँ कई बार दीवारें कितनी मजबूत हों
वक़्त के साथ हमारी सोच बदलती है
और एक दिन हम उनसे बहार आ ही जाते हैं
यहाँ मैंने जो लिखा
वो मेरे उपर भी लागू है
बिलकुल उसी तरह
पर हम सभी को तोडनी है
ये दीवारें
और बना लेंगे एक रास्ता
एक दिन ये होगा जरूर..........
बहुत सुन्दर | हृदयग्राही ||
ReplyDeleteबहुत बढ़िया जी!
ReplyDeleteइन डब्बों से खुद ही बाहर आना होता है ...
ReplyDeleteAtti Uttam!!!
ReplyDeleteमुझे तो सबसे अच्छा तब लगेगा ....
ReplyDeleteजब अपने सोच के डब्बे को दूसरे सोच के डब्बे से अदलाबदली कर लूं
बिलकुल उस बच्चे की तरह जो डब्बों से खेला करता है
जब लगे अब डब्बा पुराना हो गया है , तो झट से तोड़ डालूं उस डब्बे को
'''लेकिन सच तो यह है की बच्चे होकर हम डब्बे से खेला करते थे
अब डब्बे हमको खेलाते है.
सोच कोई रोक कर रखी जाने वाली वस्तु नहीं है चाहे फिर वो हमारे सामाजिक सारोकारों की सोच हो, हमारी सभ्यता और संस्कृति की सोच होा यह तो निरन्तर बहती रहने वाली नदी की तरह है जिसमें सदैव ताजगी बनी रहती हैा इसे एक जगह बन्द रखदिया जाय तो सडांध पैदा होने लगेगीा बहरहाल इस श्रेष्ठ रचना के लिये आपको बधाई देता हूंा
ReplyDeleteइन डब्बों पर अद्भुत अभिव्यक्ति है| इतनी खूबसूरत रचना की लिए धन्यवाद|
ReplyDeleteअस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
डिब्बों के ज़रिये बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteजो इन डिब्बों के खोल से बाहर निकल पाटा है वही बुद्धत्व को प्राप्त होता है.. बेहतरीन रचना!!
ReplyDeleteकभी कभी कमरे की दीवारों के पिंजरे को तोड़ कर मन पंछी उडान भरना चाहता है ॥
ReplyDeleteसोच के डिब्बे यदि लोहे के होगे तो सब से दूर हो जाएंगे |कम से कम पता तो होना चाहिए हर डिब्बे हें क्या बंद किया है |
ReplyDeleteआशा
सोच कई बार एक डिब्बे से दूसरे में भी पहुँच जाती है ... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसकारात्मक सोच के साथ लिखी गई रचना ...
ReplyDeletebahut achchi sochwalaa dibba.jiske ander itani sunder gajal hai.badhaai aapko.
ReplyDelete/ ब्लोगर्स मीट वीकली (३) में सभी ब्लोगर्स को एक ही मंच पर जोड़ने का प्रयास किया गया है / आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/ हमारी कामना है कि आप हिंदी की सेवा यूं ही करते रहें। सोमवार ०८/०८/११ कोब्लॉगर्स मीट वीकली (3) Happy Friendship Day में आप आमंत्रित हैं /
Bahut sahi kahi aapne.. Aabhar,,
ReplyDeleteबिल्कुल। डिब्बे वाटर टाइट कम्पार्टमेण्ट हैं। एक दूसरे से अप्रभावित (?) लैगून।
ReplyDeleteहममें ही कुछ है जो उन्हे वाटर टाइट रखना चाहता है।
बहुत सुन्दर कविता।