Thursday 28 February 2013

माँ फिर से अपना आँचल कर दो



कितने सारे दर्द हैं
जिनको जीता हूँ
दुनिया कहती है
मैं बड़ा हो गया हूँ
खुश होता हूँ मैं
जब बच्चा होता हूँ
माँ फिर से अपना आँचल कर दो
माँ मुझ को फिर से बच्चा कर दो

आदमी भी बिक रहा है














हमारे बाजार बड़े हुए हैं 
खरीद फ़रोख़्त बढ़ गयी है
अब तो आदमी भी बिक रहा है
और उसका जमीर भी
सिक्के भारी होते थे
फिर भी नहीं खरीद पाते थे आदमी को
या कि उसके जमीर को
ये नया दौर है
वक़्त की तराजू में तौल दिए जाते है
हलके नोटों के बदले
हलके होते आदमी और उनका जमीर

Wednesday 27 February 2013

फगुआ में रंग सबहु के लागी

एनहू के लागी ओनहू के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

देवरो के लागी जेठओ के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

ससुरो के लागी ससुयो के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

जवनको के लागी बुढाओ के लागी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

चाहे केहू हाँसे चाहे केहु रोए;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

डेराइब नाही लजाइब नाही;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

चढ़ल बा फगुआ के बोखार हो सजनी;
फगुआ में रंग सबहु के लागी.

Tuesday 26 February 2013

मित्र अभिनव की एक कविता पढ़ने के बाद आए विचारों से उत्पन्न एक कविता

बुख़ार की चादर ओढ़कर सोये//एक हफ्ते से ज्यादा का वक़्त बीत चुका है.//आई ऐसे जैसे Camus के अभागे Stranger को सजा मुकर्रर कर दी गयी हो//वक़्त-बेवक्त टीसती है एक बीच से शुरू हुई कविता की तरह //इच्छाएं अगर स्थिर होती हैं तो उनमें कोई रंग नहीं होते//बुख़ार का रंग हल्का पीला होता है //बुख़ार बहुत गहरा हो तब भी//पर बुख़ार योग नहीं है. //ऐसे में इच्छाएं अपने केंद्र के चारों तरफ //या इधर उधर //इस तरह धीरे धीरे चक्कर लगाती हैं //जैसे हो गया हो उनका वीर्यपात //माथे पर स्वेद-बिंदु अलग अलग देशों के मानचित्र बनाते हैं //आये कोई राजकुमारी और जीत ले जाये सारा राजपाट.//हालाँकि मुझे ज्यादा तकलीफ खाँसने से है // तुम्हारा नाम भी तो कितना कठिन है //खांसते हुए ठीक से उच्चार नहीं पाता//खांसी नाम के जैसी संज्ञा नहीं है, पर है तो ध्वनि ही // ध्वनियाँ एक दूसरे की सौत बन गयी हैं.//मेरे संतूर से भी अब यदा कदा कुछ खांसती हुई ध्वनियाँ निकलती हैं //ध्वनियों का अलग अलग कोणों पर //अलग अलग समय से खुलना //खांसी को संगीत से अलग करता है.//दवा बदल दी है मैंने//कहते हैं पहली वाली से ज्यादा असरदार है//ठीक होने के रास्ते खुले रखना //हमेशा स्वार्थ नहीं होता. ~अभिनव.



तुम्हारे बुखार को धन्यवाद ........
मैं एक बार को कहूँगा अच्छा है,
कभी कभी बुरा वक़्त भी अच्छी सौगात दे जाता है ...........
और की वस्तुओं के लिए हमारा नज़रिया बदल जाता है
फिर चाहे बुखार हो, खाँसी हो, संगीत हो, पसीने की बूँद हो,
असरदार दवा हो, तुम्हारा संतूर हो, इच्छायें हो,
या की वीर्यापात हो.. सब कुछ .......
एक अच्छी कविता के लिए तुम्हे बधाई .........
वो एक ऐसा मेहमान है जो तोहफा लेकर आया है,
पर उसे समझा दो मेहमान है जल्दी से लौट जाए,
ज़्यादे दिन रहा तो उसका अच्छा इलाज करना पड़ेगा.
अब दोस्त थोड़े ही है
कि तुम उसे बार-बार कहो 'रुक ना' 'कहाँ जा रहा है'
'चल लंका गेट तक साथ घूम कर आते हैं'
'आज चाय तेरी तरफ से'
वो हॉस्टिल मे आए पेरेंट्स की तरह है'
जल्दी भगा देने में ही अच्छाई है.
वरना हॉस्टल की गालियाँ
तुम्हारे गर्लफ्रेंड की आवाज़ (फ़ोन पर बातें) सब बदल जायेंगी.

जिंदगी के कुछ पन्ने कोरे ही रह जाने दो.

"जीवन के कुछ दिन ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे किसी कापी में कुछ पन्ने यूँ ही कोरे छूट गए हों ....... !!"
फेसबुक पर  रवीन्द्र कुमार शर्मा जी की इस लाइन का असर है ये ........... अब और क्या कहें........


सांस आने दो थोड़ी हवा आने दो;
कुछ दिनों को बस यूँ ही गुजर जाने दो.

मन के पेड़ों पर है, यादों के पत्ते बहुत;
हवा से मिल के गीत पत्तों को गाने दो.

जो शाम गुज़री थी मन बहुत भारी सा था;
ओस की बूंदे ज़रा आँखों से झर जाने दो.

जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने;
बेवजह ही यूँ ही बस कोरे ही रह जाने दो.

मानता हूँ 'मुसाफिर' को चलना है बहुत;
चलते चलते उसे थोड़ा तो ठहर जाने दो.

Monday 25 February 2013

देखता हूँ ये कैसी मेरी लाचारी है.

देखता हूँ ये कैसी मेरी लाचारी है.
दिल की दरख्तों में तस्वीर तुम्हारी है;

कच्ची अमिया खाने का भी मन है;
नाकसीर फूटने की तुझको बीमारी है.

दूर जा कर भी छूट न पाएगी;
तेरे मेरे मन की लगी जो यारी है.

तुम हो तराजू लाए बाट नहीं लाये;
'प्यार' तौलने की तुम्हे बीमारी है.

कैसे मिलोगे और कहाँ ये बतला दो;
नाम की नहीं मुझको तेरी दरकारी है.

राहें रहें मिलती 'मुसाफिर' बस क्या;
मंज़िल की नहीं कोई नशातारी है.

Thursday 21 February 2013

दिल का हाल बयाँ आँखो से कर देते हो



दिल का हाल बयाँ आँखो से कर देते हो.
बिन बोले कह देते हो कि तुम कैसे हो;

तुम अब तक घर की दीवारें देख रहे हो;
मुझ से मिलो ये तो पूंछो 'तुम कैसे हो'.

चेहरा मेरा देखोगे, न समझ सकोगे;
देखो दिल फिर न पूंछोगे 'तुम कैसे हो'.

कोई 'मुसाफिर' ही मंज़िल तक पहुँचेगा;
तुम राहों से उनका मुक़द्दर पूंछ रहे हो.

Monday 18 February 2013

आग हो तुम

मनीषा पांडे जी की बेबाकी का कद्रदान हूँ, वो समाज और उसकी रूढ़िवादिता और झूठे आडंबर के खिलाफ हैं. वो स्त्री के प्रति समाज की कुन्द हो गयी संवेदनशीलता के खिलाफ है. वो उस समाज को खंडित करती है जहाँ स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है की वो कह सके की मुझे उस पुरुष के साथ सोने की इच्छा है वैसे ये स्वतंत्रता पुरुष को भी नहीं है, कि वो कह सके की मुझे उस स्त्री के साथ सोने की इच्छा है. सेक्स हमारे समाज मे एक परित्यक्त शब्द है, ये अलग बात है की सभी उसे जीना चाहते हैं. परंतु उनका विरोध मुझे इस मायने में ग़लत लगता है कि जिस व्यवस्था के प्रति वो विद्रोह कर रही है, वो उसी व्यवस्था से उत्पन्न है, वो भी एक परिवार में जन्मी हैं, और इसी समाज ने उन्हे यह स्वतंत्रता दी है, अपनी बात कहने की और इसी समाज मे लोग उन्हे स्वीकार रहे है वो इस समाज मे बदलाव की बात नहीं करती सोच परिष्कृत करने की बात नहीं कहती वो तो समाज को ख़त्म करने की बात करती है. इससे उनका खुद का और उन जैसी बहुत सारी स्त्रियों का अस्तित्व भी ख़तरे में है. समाज मे बदलाव का पक्षधर होना समाज से लड़ना लोगों की सोच के परिष्कृत होने की बात करना ठीक है, पर उसे ख़त्म कर देने की बात करना खुद अपने अस्तित्व को चुनौती देने जैसा है. सेक्स को लेकर हमारे समाज मे हमेशा दोहरी मानसिकता रही है, पुरुषों के सन्दर्भ में भी है, स्त्रियों के सन्दर्भ में हम बहुत ज़्यादे रूढ़िवादी रहे हैं. परंतु इसके पीछे एक गहरी सोच भी हैं, स्त्री प्रकृति के सबसे करीब है, वो वैसे ही है जैसे नदी, बहुतों को जीवन दे सकती है, परंतु प्रलय भी ला सकती है. हमारे विचारकों ने इस नदी को प्रलयनकारी होने से बचाने के लिए कुछ बातें रखी. परंतु अविवेक पूर्ण लोगों की वजह से कालांतर में वो रूढ़िवादिता में बदल गयी.
वो एक अच्छी विचारक है, वो अपनी सोच के क्रियान्वयन बदलाव ला सकती है. परंतु यूँ उर्जा व्यय करना मूर्खता पूर्ण जान पड़ता है, योजना पूर्ण तरीके से काम करें तो किसी भी जगह से शुरुआत करके वो अपनी सोच को क्रियान्वित कर सकती है. हमारी शुभकामना सदैव उनके साथ है.


आग हो तुम
कर सकती हो किसी की क्षुधा को शांत
या कि कर सकती हो भस्म
तुम्हारे ताप से निखर सकता है कुंदन
या कि पिघल कर हो सकता है वाष्पित भी
तुम नहीं जानती तुम क्या हो
तुम प्रकृति में सृजन का हो मूर्त रूप
और विध्वंश का पर्याय हो
भस्म कर सकती हो मानव सोच के बीहडों को
सृजन कर सकती हो नया स्वरूप
सम्हल कर जलने देना संवेदना की आग
वरना तुम्हारी एक ग़लती
तुम्हारे खुद के अस्तित्व को लगा देगी आग

Monday 11 February 2013

'प्रेम' घटित होता है














पत्ते गिरते हैं पेड़ से
फिर से नये आते हैं

फूल मुरझाते हैं
नयी कोपलें फिर आती हैं

सागर में लहरें उठती हैं
और फिर सागर में मिल जाती हैं

हवायें सागर को स्पर्श करती हैं
और दूर निकल जातीं हैं

पत्तें, फूल, लहरें, हवायें
कोई कारण नहीं ढूढ़ते

यही उनका प्रेम है प्रकृति को
'प्रेम' घटित होता है ऐसे ही अकारण

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...