Tuesday 27 October 2015

रोटियाँ

(१)
रोटियाँ
चूल्‍हे पर पकती है
सिर्फ़ रोटियाँ पकती है
ऐसा तो नहीं है
साथ में पक रहा होता है
मन में प्रेम
और कि किसे पता
रोटियों मे भी पकता हो प्रेम
या की प्रेम मे पक जाती हो रोटियाँ
और उस में बस जाती हो एक ख़ुश्बू
और मिठास

(२)
रोटियाँ
चूल्‍हे पर पकती हुयी
सूखा देती है खुद का पानी
या की पानी के सूखने से
तय होता है
उनका पकना
और जिंदगी की धूप में
इंसान का पकना
तय होता है
आँखो से पानी के खो जाने से
चेहरे और होठ की बनावटी हँसी के साथ
आँखों का साथ न दे पाने से

Friday 16 October 2015

कविता

समाज की गहरी मानसिकता को उभारती,
और गहरे से एक दूसरे से गूँथती
कविता जो हृदय पर उकेर देती है
सजीव भावनाओं के चित्र
भर देती है उमंग से
साहस से लबरेज़ करती कविता
जीवन के कठिनाइयों से शतर्क करती कविता
कविता जो कहती है हार मत मानना
लड़ते रहना विषमताओं से
कि बाँधा सको हिम्मत
आने वाले कल में
क्यों की मानव की खाल ओढ़े
जानवर आज भी हैं
कल भी होंगे।

Saturday 10 October 2015

स्तब्ध, निरुत्तर और निर्जीव!!!

मुश्किल होता है समझ पाना
या की खुद को समझा पाना
जब आप किसी के साथ चल रहे हो
और उस के साथ होने का एहसास हो
और तभी वो बिना कुछ कहे
यूँ आहिस्ता से आप से दूर चला जाए
और कुछ भी समझना मुश्किल हो
बस आप खड़े रह जाए
स्तब्ध, निरुत्तर और निर्जीव!!!

Thursday 8 October 2015

तुम्हारी कविता के शब्द,दलाल के शब्द जान पड़ते है

जब मैं तुम्हारी बाज़बजाती गंधाती सोच को सुनता हूँ
तो मुझे तुम्हारी कविता के शब्द
उस दलाल के शब्द जान पड़ते है
जो एक स्त्री को वेश्या कह कर
उस की कीमत लगा रहा होता है
सत्ता के गलियारों में
लखटकिया पुरस्कार में बिक चुकी
तुम्हारी बेगैरत सोच मुझ में नफ़रत पैदा करती है
जब लोगों के कानों में एक व्यक्ति की चींख गूँजती है
जब उस की मौत कइयों को डर से सोने नहीं देती
तब तुम्हारी कविता मछली और सागर की बात करती है
तब मुझे तुम्हारे शब्द नीरो के कानफोड़ू बांसुरी जैसे लगते है
तुम्हारी कविता प्रेम और परमात्मा की बात करती है
तब मुझे लगता है की ये शब्द झूठे है
जो महसूस नहीं कर पता है उस चींख को
वो कैसे दावा करता है प्रेम और परमात्मा की
तुम्हारे चरित्र और तुम्हारी कविता दोनों भौंडे लगते हैं

Sunday 4 October 2015

बाँधते बाँधते ज़िंदगी में बिखर जाते है

बाँधते बाँधते ज़िंदगी में बिखर जाते है,
याद आये जो तुम अश्क़ ये ढ़ल जाते है।

तुम मोहब्बत में या समंदर में डूबो,
ढूँढो तो हाथ में मोती ही बस आते है।

गिर के उठना, फिर गिर के सम्हालना,
वक़्त के साथ ये हुनर सीख ही जाते है।

बाँधते छूटते अरमानों के धागे है ये,
हर एक मोड़ पर तन्हा ही तो रह जाते है।

ज़िंदगी बदले चाहे कितने मोड़ भी लेकिन,
सफ़र हो तन्हा, 'मुसाफ़िर' ही कहलाते है।

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...