Sunday 18 August 2013

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है


जाने फिर क्यूँ मुझे वो याद आया;
जाने फिर क्यू ये ख़याल आया.

जिस्म दो हैं, उसका और मेरा; 
जिसमें बसता है एक ही साया.

सुबह और शाम एक ही तो है;
बस ज़रा वक़्त का फासला पाया.

बेमियादी चाहतो का मतलब;
तो मौत के बाद ही समझ आया.

जब भी उसकी याद से लिपटा;
मैं खुद का कहाँ फिर रह पाया.

जितना दौड़ा पहुँचने को उस तक ;
खुद को उतना ही दूर मैं पाया.

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है;
'मुसाफिर' चाहकर न ज़ी पाया.



Saturday 17 August 2013

शब्दों के खिलाड़ी














वो एक वक़्त था
जब उनके मन में थी एक आग
आग दुनिया को बदलने कि
या कि आग प्रेम की
खुद की दुनिया बदलने की
ऐसे समय में लिखे गये शब्द
जिनका एक अलग विन्यास था
वो 'कविता' थी
वक्त के साथ आग बुझने लगी
वक़्त के साथ कवितायें खोने लगी
पर शब्दों से खेलने का हुनर तब तक आ चुका था
अब मैं उन्हे शब्दों से खेलते देखता हूँ
वो आग जिसकी बात 'दुष्यंत कुमार' करते है
वो आग ख़त्म हो चुकी है
वो अब शब्दों के खिलाड़ी है
और वो खुद को 'कवि' कहलाना पसंद करते है

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...