मौन सहमति नही थी, विरोध था।
पर तुम मौन नही समझते,
तुम भूख और तड़प नही समझते।
नही सुना तुमने जब मौन
तब हमने लिया है सहारा बंदूको का,
ताकि तुम्हारे कान खुल सके।
तुम्हे भी महसूस हो पीड़ा अपनों को खोने की,
पर शायद तुम्हें शरीर की भूख और अपनों का दर्द ही समझ आता है।
ऐसे मे हम कहाँ जायें,
तो ऐसे में हमारी बंदूके हमारी आवाज़ है,
इनसे चली गोलियां शायद तुम्हें याद दिला सकें की हमारे लोग भी यूं ही तड़प के मरे थे,
तुम्हारी गोलियों से।
और उनका कसूर सिर्फ ये था की वो तुम्हारी तरह पढ़ें लिखें नहीं थे।
वो इंसान तो थे पर तुम जैसे धूर्त नहीं थे।
उन्हें अपनी मिट्टी से प्रेम था,
जिसका तुम सौदा करना चाहते थे।
सत्य यही है, तुम इस देश का भी सौदा कर सकते हो।
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना,आभार.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (28-05-2013) के "मिथकों में जीवन" चर्चा मंच अंक-1258 पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लोगों तक कविता पहुँचाने के लिए आभार !
Deleteबहुत प्रभावी ...
ReplyDeleteसच है आज मिट्टी क्या सांसों का भी सौदा करने से नहीं हिचक रहे हैं ...
सहृदय आभार !
Deletesatik .....
ReplyDeleteआभार!
Delete