Monday 18 February 2013

आग हो तुम

मनीषा पांडे जी की बेबाकी का कद्रदान हूँ, वो समाज और उसकी रूढ़िवादिता और झूठे आडंबर के खिलाफ हैं. वो स्त्री के प्रति समाज की कुन्द हो गयी संवेदनशीलता के खिलाफ है. वो उस समाज को खंडित करती है जहाँ स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है की वो कह सके की मुझे उस पुरुष के साथ सोने की इच्छा है वैसे ये स्वतंत्रता पुरुष को भी नहीं है, कि वो कह सके की मुझे उस स्त्री के साथ सोने की इच्छा है. सेक्स हमारे समाज मे एक परित्यक्त शब्द है, ये अलग बात है की सभी उसे जीना चाहते हैं. परंतु उनका विरोध मुझे इस मायने में ग़लत लगता है कि जिस व्यवस्था के प्रति वो विद्रोह कर रही है, वो उसी व्यवस्था से उत्पन्न है, वो भी एक परिवार में जन्मी हैं, और इसी समाज ने उन्हे यह स्वतंत्रता दी है, अपनी बात कहने की और इसी समाज मे लोग उन्हे स्वीकार रहे है वो इस समाज मे बदलाव की बात नहीं करती सोच परिष्कृत करने की बात नहीं कहती वो तो समाज को ख़त्म करने की बात करती है. इससे उनका खुद का और उन जैसी बहुत सारी स्त्रियों का अस्तित्व भी ख़तरे में है. समाज मे बदलाव का पक्षधर होना समाज से लड़ना लोगों की सोच के परिष्कृत होने की बात करना ठीक है, पर उसे ख़त्म कर देने की बात करना खुद अपने अस्तित्व को चुनौती देने जैसा है. सेक्स को लेकर हमारे समाज मे हमेशा दोहरी मानसिकता रही है, पुरुषों के सन्दर्भ में भी है, स्त्रियों के सन्दर्भ में हम बहुत ज़्यादे रूढ़िवादी रहे हैं. परंतु इसके पीछे एक गहरी सोच भी हैं, स्त्री प्रकृति के सबसे करीब है, वो वैसे ही है जैसे नदी, बहुतों को जीवन दे सकती है, परंतु प्रलय भी ला सकती है. हमारे विचारकों ने इस नदी को प्रलयनकारी होने से बचाने के लिए कुछ बातें रखी. परंतु अविवेक पूर्ण लोगों की वजह से कालांतर में वो रूढ़िवादिता में बदल गयी.
वो एक अच्छी विचारक है, वो अपनी सोच के क्रियान्वयन बदलाव ला सकती है. परंतु यूँ उर्जा व्यय करना मूर्खता पूर्ण जान पड़ता है, योजना पूर्ण तरीके से काम करें तो किसी भी जगह से शुरुआत करके वो अपनी सोच को क्रियान्वित कर सकती है. हमारी शुभकामना सदैव उनके साथ है.


आग हो तुम
कर सकती हो किसी की क्षुधा को शांत
या कि कर सकती हो भस्म
तुम्हारे ताप से निखर सकता है कुंदन
या कि पिघल कर हो सकता है वाष्पित भी
तुम नहीं जानती तुम क्या हो
तुम प्रकृति में सृजन का हो मूर्त रूप
और विध्वंश का पर्याय हो
भस्म कर सकती हो मानव सोच के बीहडों को
सृजन कर सकती हो नया स्वरूप
सम्हल कर जलने देना संवेदना की आग
वरना तुम्हारी एक ग़लती
तुम्हारे खुद के अस्तित्व को लगा देगी आग

2 comments:

  1. बहुत सशक्त भाव अभिव्यक्ति .रूपकात्मक रूपाकार लिए .कृपया "क्षुधा" कर लें .

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    Replies
    1. आभार!!!
      गलती पहले ही समझ आ गयी थी, बस सही करने से पहले आपने कमेंट कर दिया |

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