यहाँ,रात जम के बारिश तो हुई;
पर दिल का आँगन सूखा ही रहा.
महफ़िल में लोग भी आए थे;
पर महफ़िल दिल का सूना ही रहा.
मेरी आँखे तो थीं ढूढ़ रही;
पर मेरा आईना तो झूठा ही रहा.
वो एक समंदर है मेरा;
मैं एक दरिया सा बहता ही रहा.
फूलों का ख्वाब सजाए हुए;
मैं काँटों का साथ देता ही रहा;
पल साथ मिले जी भर जी लूँ;
तिल तिल कर पल जीता ही रहा.
बहुत खूबसूरत अहसास
ReplyDeleteये गम मेरा अपना तो नहीं, से सबका रहा है मुद्दत से;
Deleteबस फ़र्क यहाँ पर इतना है, मैने है जिया इसे सिद्दत से. © Gyanendra
बहुत खूब ... मन के आँगन बारिश नहीं मन की बूंदों से भीगते हैं ...
ReplyDeleteअच्छी अचना है मुसाफिर जी ...
आपको पसंद आई ये रचना जान कर अच्छा लगा .
Deleteसहृदय आभार.
आभार!!
ReplyDeleteप्रणाम