निश्तेज हो फिर सूर्य भी;
उतर आए यदि मेरे मन आकाश में.
है मेरी ये सौम्यता;
निर्विकार सी, चंद्रमा सी ही सधी.
पृथ्वी सी सहनशीलता;
आकाश सा विस्तृत हृदय,
है देखता, सबको खुद में देखता.
लो फिर से मैं गढ़ रहा हूँ;
प्रेम की अवधारणा,
खुद से, खुद के प्रेम की, क्या है विकट संभावना?
खुद में सबको देखना;
या सब मे खुद को देखना,
एक ही पर्याय है,है ये बस प्रेम में संभावना.
निरुत्तरित क्यों हो रहा;
ये विस्तृत आकाश भी,
मेरे मन आकाश में, है बस प्रेम की संभावना.
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteआभार!!!
ReplyDeleteयही संभावना मन को निर्मल और जीवन को अर्थ प्रदान करती है!!
ReplyDeleteचरण स्पर्श स्वीकार करें |
ReplyDeleteबहुत दिनों से गायब थे आप और यहाँ आपका इंतज़ार था|
मार्च ने व्यस्त कर रखा है और थका भी डाला है!! शायद कुछ दिनों यही चले!!
Deleteहमें अंदाजा था इसका, होली में आप पटना थे और आने के बाद बैंक में फिनान्सिअल इयर क्लोसिंग ...........
ReplyDeleteअब तो २-३ अप्रैल तक फुर्सत मिलेगी.
प्रणाम