मैं समंदर हूं कि हवा हूं मैं;
नहीं हूं खुद में तो कहाँ हूं मैं|
लम्हें वो जिनको ज़ी नहीं पाया;
उन ही लम्हों को जोड़ता हूँ मैं|
सांस बिखरी हों या तेरी यादें;
एक तड़फ़ है जो ज़ी रहा हूं मैं|
एक अरसा हुआ देखे तुझको;
अरसा पहले ये पल जिया हूं मैं|
मिलना फ़ुर्सत से सफ़र के बाद;
'मुसाफिर' हूं फ़ुर्सत में कहां हूं मैं|
समंदर हूँ कि बादे-सबा हूँ मैं..,
ReplyDeleteखुद में नहीं हूँ तो कहाँ हूँ मैं..,
बादे -सबा = पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली हवाएँ
बहुत बहुत आभार!!!
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-05-2014) को "फ़ुर्सत में कहां हूं मैं" (चर्चा मंच-1605) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रचना को ज्यादे लोगों तक पहुँचाने के लिए आभार!!!
Deletebahut sundar!
ReplyDeleteNew post ऐ जिंदगी !
सहृदय आभार!!!
Deleteबहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteआभार!!!
Deleteबहुत खूब ... मुसाफिर का काम तो चलना ही है ...
ReplyDeleteवक़्त के साथ चलते हुए ...... जो महसूस किया, वही कलम ने लिख दिया ..... हौसला बढ़ाने के लिए आभार!!
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ,मुसाफिर को फुर्सत मिल जाये तो कैसा मुसाफिर। ....
ReplyDeleteसहृदय आभार!!
Deleteप्रणाम!!
कल 09/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
ज्यादे लोगों से साझा करने के लिए आभार!!!
Deleteसुंदर !
ReplyDeleteसहृदय आभार!!!
Deleteबेहतरीन कविता......
ReplyDeleteसहृदय आभार!!!
Deleteअच्छे भावभूमि से उपजी एक भावभीनी ग़ज़ल।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार!!!
DeleteGood Going Gyan!!
ReplyDeleteThank you Vikash
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