समझने को कहाँ कुछ भी रहा अब;
कब वो समझा अपना, मेरा रहा कब.
कि खुद में जलने का भी मज़ा है;
मैने उस से शिकायत ही किया कब.
गैर होकर भी जो लगता था अपना;
अपना होकर वो गैर ही हुआ अब.
जाँच तफ़सील से ज़रा कर लो तुम;
दिल मेरा था कभी उसका हुआ अब.
'मुसाफिर' हूँ अंधेरों से नहीं डरता हूँ;
अंधेरा अपना रहा, उजाला हुआ कब.
शुक्रिया दोस्त .छा गए टिपियाने में मर्म समझ गए बतियाने का .
ReplyDeleteजांच तफसील से कर लो ,
दिल मेरा था कभी ,उसका अब हुआ .
बहुत खूब अशआर है ,दाद ही दाद है .
आभार!!!
Deleteअशआर आपके दिल तक पहुंचे बस यही कामयाबी है.
मैंने उससे शिकायत किया ही कब .
ReplyDeleteखुद में जलने का भी मजा है .
शुक्रिया दोस्त टिपण्णी का .आदाब .
आभार!!!
Deleteप्रणाम