Thursday, 30 July 2020

ओ मेरे रफ़ूगर

(१)
ओ मेरे रफ़ूगर,
अगर हो सके तो,
सिल भी दे ये चाक-ए-जिगर।

ऐ मेरे हक़ीम,
है सब कुछ बेअसर,
कुछ तो मर्ज़ की दवा कर।

ओ हमसफ़र,
मंज़िल होती है बिलकुल अकेली,
अब तो तूँ रास्ता बन साथ यूँ ही चला कर।

(२)

ज़रूरी नहीं है
तुम हाथ बढ़ाओ
तो एक हाथ का साथ मिले
कई बार, बार बार अपना हाथ खींच लेने वाले लोग
ये एहसास दिला जाते हैं
प्रेम तुम्हारे भीतर ही था, है, और रहेगा
ख़ुदा के लिये, खुद के लिये और यूँ ही सब के लिये

(३)
किसी को चाहने की भी एक उम्र होती है
और कई बार ये उम्र जन्मों में गिनी जाती है
फिर आप खुद को चाहने लगते है
और ये खुद जो चाहना
ख़ुदा और उस की पूरी कायनात को चाहने जैसा है 

3 comments:

  1. ‘मंदिर का निर्माण’ चर्चा इस विषय के पक्ष में हैं तो आप से आग्रह है की यह पोस्ट वहाँ न लगायें।
    कारण इस में ख़ुदा की बात है और लोगों के राम नाराज़ हो जायेंगे। हमारे राम नहीं होते नाराज़, पर लोगों के हो सकते हैं।

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  2. ओ मेरे रफ़ूगर,
    अगर हो सके तो,
    सिल भी दे ये चाक-ए-जिगर।
    👌👌👌

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