तुम्हारा प्रेम,
अगर निश्छल और निस्पृह नहीं है,
तो सचेत होकर गौर से देखना,
वो किसी और के पहले तुम्हें बांध रहा होगा।
तुम्हारा प्रेम,
अगर किसी को उन्मुक्त आकाश न दे सका,
तो वह तुम्हें स्वयं में स्वतंत्रता की ज़मीन न दे सकेगा।
फिर तुम दौड़ते रहना,
जन्म जन्मांतर,
प्रेम के इतर,
प्रेम के नाम पार बनाई हुई मृगमरीचिका के लिये।
वाह,आपकी दार्शनिक लेखन की तारीफ जितनी भी करें, कम है। प्रेम की इस अनुभूति और ऐसी व्याख्या कम ही पढने को मिलती है। साधुवाद आदरणीय।
ReplyDeleteप्रणाम
Deleteसहृदय आभार
बहुत सुंदर पंक्तियाँ।
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