Thursday 29 November 2012

स्त्री, पुरुष, प्रकृति और प्रेम

क्या यह कहना सही होगा की "प्रेम पुरुष के जीवन की एक घटना है, स्त्री के जीवन का सर्वस्व ही प्रेम है" ?


प्रकृति की बाकी संरचनाओं  में स्त्री और पुरुष भी प्रकृति की संरचनायें हैं। प्रेम अक्षीर्ण शाश्वत उर्जा है, जो सब में प्रवाहित हो रहा है। बस फ़र्क ये है कि जल मे रहते- रहते मछली भूल जाती है कि उस के लिये जल का क्या महत्व है। फिर कोई घटना घटित होती है,और प्रेम मे होने और प्रेम मय होने का ज्ञान हो जाता है। प्रेम घटना के पहले भी था बाद मे भी, रही बात स्त्री और पुरुष के प्रेम को समझने की तो दोनो की अपनी प्रकृति है। परन्तु प्रेम दोनो के लिए एक ही है, उसे समझने का तरीका अलग हो सकता। हां स्त्री प्रकृति के ज़्यादे करीब होती है,वह प्रकृति की तरह ही जननी, और पुरुष प्रकृति द्वारा रचा गया प्रकृति का संरक्षक, वो प्रेम को जल्दी समझ जाती है, पुरुष को थोड़ा वक़्त लगता है। 'प्रेम पुरुष के जीवन की एक घटना मात्र है' यह सत्य नहीं हो सकता। बस वह इन्हे घटनाओं के बाद समझ पाता है। 'स्त्री के जीवन का सर्वस्व ही प्रेम है', ऐसा भी नहीं है, हां पर प्रकृति के ज़्यादे करीब होने की कारण प्रेम को कम समय में सघन रूप से महसूस करने की उसकी क्षमता अदभुद है. 
प्रेम की पूर्णता तभी है, जब स्त्री और पुरुष की भिन्नता मिट जाए। उसके पहले जिसकी हम बात कर रहे हैं, वो शायद प्रेम नहीं है। इसी लिए प्रेम स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न नहीं हो सकता, वहाँ ना तो स्त्री है न पुरुष। 

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर विश्लेषण दिया है प्रेम का

    ReplyDelete
    Replies
    1. वंदना जी बहुत बहुत आभार !!!

      Delete

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...