अब तक जिन आँखों से ही देखी मैं ने दुनिया;
वो आँखे बदल गयीं या कि बदल गयी दुनिया.
साँसों की रफ़्तार में जैसे धुधला सा जीवन;
खोजता है खुद को जो गुम गयी कहीं दुनिया.
मृग तृष्णा सा लगता क्यूँ है ये सारा जीवन;
खुद से दूर सदा खोजे और खुद में ही दुनिया.
बाहर की दौड़ में सारा ख़त्म हुआ जीवन;
फिर ये समझ आया, थी भीतर असली दुनिया.
और 'मुसाफिर' प्रेम की खातिर जो भागा दौड़ा;
रुक कर जो भीतर देखा थी प्रेम सरस दुनिया.
सुन्दर गजल!
ReplyDeleteसहृदय आभार!!!
Deleteलाजवाब कितना मोहक शब्द-संयोजन ! वाह !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार संजय जी !!!
Deleteप्रेम में भीगे रहते हो निशि बाशर,बने रहो हमारे लिए .करते रहो इनायत टिप्पणियों की .
ReplyDeleteसप्रेम आभार!!!
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