Tuesday, 4 December 2012

आईना झूठ हो गया मेरा


आग-ए-दिल से धुआँ उठता ही नहीं;
दिल का जलना नज़र आता ही नहीं.

आईना झूठ हो गया मेरा ;
चेहरा उसका ये दिखाता ही नहीं.

साफ़ दिल पाक भी है मेरा;
बाद उसके कोई भाता ही नहीं.

गैर मुमकिन था जमाना बदले;
रवायतें मैं भी निभाता ही नहीं.

ये है तन्हा सफ़र 'मुसाफिर' का;
हमसफ़र साथ वो आता ही नहीं.

9 comments:

  1. बदलते चेहरों के मौसम में हर वक्त,
    जरबरी है नजर के सामने आईना रखना।

    बहुत सुंदर प्रस्तुति ।मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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    1. प्रणाम
      सहृदय प्रेम और आभार ...............
      आपके ब्लॉग से जुड़ गया हूँ और आपसे भी.

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  2. आपके अद्भुत लेखन को नमन,बहुत सराहनीय प्रस्तुति.बहुत सुंदर
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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    1. बहुत बहुत आभार!!!!!!!
      जी बस बड़े लोगों का आशीर्वाद है!!!!!

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  3. बहुत बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति |
    आशा

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    1. प्रणाम
      सहृदय आभार !!!

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  4. बहुत बढिया

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    1. शुक्रिया वरुण जी !!!

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