Sunday, 3 June 2012

शाम भी अजनबी सा मुझे ढूढ़ता रहा;
मैं याद मे तेरी कुछ यूँ खोया हुआ रहा.

देखता हूँ दरवाजे पर दस्तक हो तुम दिये;
तेरी याद से जागा, बस वो झोका वहाँ रहा.

आरजू-ए-दिल से इंतज़ार के सफ़र में हूँ;
मोहब्बत का रास्ता ये कभी छोटा कहाँ रहा.

इस दौर-ए-मोहब्बत को यूँ जी रहा हूँ मैं;
तूँ देख ज़रा गौर से, मैं अपना कहाँ रहा.

मैं कह रहा हूँ नाम 'मुसाफिर' ही है मेरा;
'तेरा चाहने वाला हूँ' यही हर सख्स कह रहा.

4 comments:

  1. ..कमाल का शेर दिया है इस बेहतरीन गज़ल ने !
    फुर्सत मिले तो आदत मुस्कुराने की पर ज़रूर आईये

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    1. आपका सहृदय आभार!!!!!!

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  2. बहुत खूब ... लाजवाब शेर हैं सभी ...

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  3. आभार!!!
    आपका ब्लॉग पढ़ा, बहुत अच्छा लगा.

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