शाम भी अजनबी सा मुझे ढूढ़ता रहा;
मैं याद मे तेरी कुछ यूँ खोया हुआ रहा.
देखता हूँ दरवाजे पर दस्तक हो तुम दिये;
तेरी याद से जागा, बस वो झोका वहाँ रहा.
आरजू-ए-दिल से इंतज़ार के सफ़र में हूँ;
मोहब्बत का रास्ता ये कभी छोटा कहाँ रहा.
इस दौर-ए-मोहब्बत को यूँ जी रहा हूँ मैं;
तूँ देख ज़रा गौर से, मैं अपना कहाँ रहा.
मैं कह रहा हूँ नाम 'मुसाफिर' ही है मेरा;
'तेरा चाहने वाला हूँ' यही हर सख्स कह रहा.
..कमाल का शेर दिया है इस बेहतरीन गज़ल ने !
ReplyDeleteफुर्सत मिले तो आदत मुस्कुराने की पर ज़रूर आईये
आपका सहृदय आभार!!!!!!
Deleteबहुत खूब ... लाजवाब शेर हैं सभी ...
ReplyDeleteआभार!!!
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पढ़ा, बहुत अच्छा लगा.