Thursday, 16 February 2012

गर्दिश-ए-शाम बन गया हूँ मैं


गर्दिश-ए-शाम बन गया हूँ मैं; 
तेरे पहलू से जो उठ गया हूँ मैं.

आईना देखता हूँ, मैं तुझको पाता हूँ;
कि नज़र हो तेरी, और बयाँ हूँ मैं.

अपना साया भी तो अपना न रहा;
बिछुड़ के तुझसे यूँ तन्हा हूँ मैं.

ज़ख्म तेरा हो या मेरा हो;
अपने इस दिल मे जी रहा हूँ मैं.

है 'मुसाफिर', है मोहब्बत का सफ़र;
आश है तेरी तो चल रहा हूँ मैं.

15 comments:

  1. जुदाई का दर्द हर छंद में दिख रहा हि.. बहुत गहरे भाव!!

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    1. दिल और दर्द का रिस्ता बहुत गहरा है.
      और दर्द जुदाई का हो तो बात ही क्या है.

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  2. सुन्दर भावों को शब्दों में ढाला है आपने ज्ञानेन्द्रजी. बहुत अच्छा लगा आपके ब्लाग को देख कर.
    बह्र को थोड़ा और समय दें.

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    1. बह्र पर अभी पकड़ नहीं बनी है.
      और वर्तनी मे भी कभी कभी ग़लती हो जाती है.
      हमेशा चाह थी किसी गुरु का सानिध्या प्राप्त हो,
      पर ये सौभाग्य नहीं मिला.

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  3. गर्दिशे शाम खुशनुमा सवेरे में बदले, यही कामना है।

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  4. ये तो एक अलग मनः स्थिति मे मान के उद्गार हैं,
    वैसे लता जी की गायी हुई ये ग़ज़ल सार्थक है अपने पूर्ण अर्थो मे.

    गम का खजाना तेरा भी है मेरा भी;
    ये नज़राना तेरा भी है मेरा भी.

    आपके आशीर्वाद से सब ठीक ही रहेगा.
    प्रणाम

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  5. दुख-दर्द की इंतहां है!

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    1. ये एक सौगात भी है. बहुत कम लोगों को मिलती है.

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  6. Replies
    1. आप लोगों का आशीर्वाद है.

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  7. dard ko bayan karati bahut hi dard mai kavitaa .badhaai aapko.

    mere blog per aaiye
    www.prernaargal.blogspot.com

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  8. Behad Marmik Prastuti..........
    sunder bhavo se sajaya hai aapne.......

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