शाखों से अलग पत्ते,
हवा के हल्के झोंके से दूर चले जाते हैं।
मैं तुमसे अलग,
इतना जड़ कैसे हूँ।
जंगल में पेड़ से अलग सूखे पत्ते,
यूँ ही जल जाते हैं।
मैं तुमसे अलग ,
अब तक जला क्यों नहीं।
समंदर से अलग हुई लहर,
अपना अस्तित्व खो देती है।
मैं तुमसे अलग,
खुद का होना सोचूँ कैसे।
हवा के हल्के झोंके से दूर चले जाते हैं।
मैं तुमसे अलग,
इतना जड़ कैसे हूँ।
जंगल में पेड़ से अलग सूखे पत्ते,
यूँ ही जल जाते हैं।
मैं तुमसे अलग ,
अब तक जला क्यों नहीं।
समंदर से अलग हुई लहर,
अपना अस्तित्व खो देती है।
मैं तुमसे अलग,
खुद का होना सोचूँ कैसे।
वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब ।
ReplyDeletedur ho jate hai shak se patte.........
ReplyDeletenahi mitti unki darare kabhi ........
behtreen prastuti ke liye badhai .............
WAAH...BAHUT KHOOBSURAT RACHNA...BADHAI SWIIKAREN
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,
ReplyDeleteबड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
ReplyDeleteवाह! वाह! सुन्दर रचन...
ReplyDeleteसादर..
आसान से शब्दों में.. गहराई से व्यक्त होती हुई भावना!! साधुवाद!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.
ReplyDeleteआपका भाव आपके अंदर प्रेम की अथक कहानी कहना चाह रहा है । मेरे पोस्ट पर भी आकर मेरा मनोबव बढाएं ।
ReplyDeleteधन्यवाद ।
सुन्दर ,सराहनीय रचना , बधाई
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें /
आपको दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
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