रास्ते का पत्थर,
निखरा है, कितनी
ठोकरें खाकर।
जो,
ठिठुरता ठंड में,
तपता है, कड़क
धूप में, अजर।
वो,
घूमता एक दिन,
पहुँचा शिवालय,
हो बच्चे के कर।
वो,
मुस्कुराता वक्त पे,
और कभी फिर ,
इस भाग्य पर।
जो,
ठोकरे दे कर गए,
वो मिलें हैं, देखो
सर झुका कर।
निखरा है, कितनी
ठोकरें खाकर।
जो,
ठिठुरता ठंड में,
तपता है, कड़क
धूप में, अजर।
वो,
घूमता एक दिन,
पहुँचा शिवालय,
हो बच्चे के कर।
वो,
मुस्कुराता वक्त पे,
और कभी फिर ,
इस भाग्य पर।
जो,
ठोकरे दे कर गए,
वो मिलें हैं, देखो
सर झुका कर।
कविता में दूसरे और तीसरे बंद की जरूरत नहीं है।
ReplyDeleteजी आपकी टिप्पणी के बाद पढा तो महसूस किया.
ReplyDeleteवक्त और भाग्य की ही बात है कि ठोकरे मारने वाले झुक कर सलाम करते हैं ...
ReplyDeleteबेहतरीन !
अंतिम बंद बढ़िया और सार्थक.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयह कविता भले ही पत्थरके विषय में हो, पर स्वयम में मील का पत्थर है!!
ReplyDeletewah thoker kha kar bhi na samble to insaan ka naseeb
ReplyDeleteraste ke patter apna haq ada karte hai................