Saturday, 23 January 2016

ज़िंदा मुर्दों के देश में

वो रात
जैसे ख़त्म ही न हो रही थी 
एक नौजवान की मौत हुई थी 
और जैसे सदियों के दर्द से करांहती आत्मायें 
नींद से जाग गयीं थीं 
और की दर्द की पराकाष्ठा पर क़राह रहीं थी 
मैंने उन के शरीर पर कोड़ों के निशान देखे 
वही कोड़े जिन से तुम्हारे बाप दादे 
घोड़ों के जाबुक का काम लेते थे 
सब दर्द से करांहती  लाशें जागी थी 
कि एक नौजवान की मानसिक यातनायें 
वो अपने भीतर महसूस करने लगी थी 
महसूस कर रहीं थी गले पर कसते फंदे से घुटते हुये दम को
और उनकी आँखे और जीभ बाहर आ गये थे दम घुटने से 
पर अब वो मानसिक यातनाओं से मुक्ति पा चुकी थीं
पर देख रहा हूँ की  शहर  मुर्दा घर हुये पड़े है
लोग हैं की लाश की तरह बेसुध है 
जैसे कुछ हुआ ही नहीं 
वो शायद किसी क़रीबी के मौत पर ही जागते है 
और जैसे हम है ज़िंदा मुर्दों के देश में


4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-01-2016) को "मैं क्यों कवि बन बैठा" (चर्चा अंक-2232) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर रचना । आपके ब्लॉग को "ब्लॉगदीप" में शामिल किया है ।
    http://pksahni.blogspot.com

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