तेरी आस लगाये बैठे;
गुज़रे जाने दिन कितने है।
अब तो ये आलम है देखो;
लोग मुझे पागल कहते हैं।
तुम से नहीं तो यादों से हम;
रोज़ ही आठ पहर मिलते हैं।
दो से आठ पहर चढ़ते फिर;
ज्यों लहरें और सागर मिलते हैं।
कुछ तो सुध कर लो मेरी अब;
रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं।
गुज़रे जाने दिन कितने है।
अब तो ये आलम है देखो;
लोग मुझे पागल कहते हैं।
तुम से नहीं तो यादों से हम;
रोज़ ही आठ पहर मिलते हैं।
दो से आठ पहर चढ़ते फिर;
ज्यों लहरें और सागर मिलते हैं।
कुछ तो सुध कर लो मेरी अब;
रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं।
वाह.... कमाल की गजल..... बहुत बढियां...
ReplyDeleteबढ़िया रचना ..
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