इस तरफ भी वही है, वो ये मानता नहीं;
कैसे हों पार तैरना तो जानता नहीं.
अब तक मेरे वजूद को झुठला रहा है वो;
कहता है कि मुझ को पहचानता नहीं.
मैने कहा मैं बस मोहब्बत का पैगाम हूँ;
वो, मोहब्बत है क्या ये जानता नहीं.
जाना ये जब से दिल में इबादत का दौर है;
उसके सिवा कुछ भी मैं माँगता नहीं.
दुनिया की दौड़ तो है मंज़िल की चाह में;
उसके बगैर मंज़िल कोई मैं जानता नहीं.
मैं दौड़ता 'मुसाफिर' इस पार से उस पार;
खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.
बहुत ही खूबसूरत बातें कहीं हैं आपने!! सादगी में भावनात्मक अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteप्रणाम,
Deleteचरण स्पर्श.
आज कल फेसबुक पर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं!!!!!
सन्यास लेने का इरादा तो नहीं है वहां से.
आपका सहृदय आभार|
ReplyDeleteरचना को दूसरों तक पहुँचाने के लिए चर्चा मंच का आभार|
bahut khoobsurat...
ReplyDeleteप्रणाम
Deleteसहृदय आभार!!!