धरती बँटी और बन गयी जैसे की एक दयार।
मैं देखूँ तुम्हें पहले पहल की चाहने के बाद,
चाँद को उतरना है, चश्म-ए-दिल के पार।
वो सुर्ख़ियाँ बटोर कर बैठे हैं बेअसर,
हम बदनाम हो गये, उन से कर की प्यार।
कोई बता दे अब हमें, हम बैठें हैं किस दयार,
जो अपना था कहाँ रहा वो होश अख़्तियार।
मुसाफ़िर तुम्हें हम छोड़ तो दे अपनायेगा कौन,
ख़ुद का न हो सका तो क्या हो विसाल-ए-यार।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
ReplyDelete