Friday, 7 June 2013

मैं अब भी समझता हूँ वो मेरा गैर नहीं.













वो मुझ से पूंछते हैं मेरा नाम, बेपरवाह;
जिन्हे मैं अब भी समझता हूँ मेरे गैर नहीं.

सुकून छीनता है जो अब भी मेरे दिल का;
वही जालिम है समझता हूँ कोई गैर नहीं.

मैं अब बताउँ जमाने को, तो बताउँ क्या;
मेरा मुंसिफ, मेरा कातिल, है मेरा गैर नहीं.

अजीब दौर से गुजर रहा हूँ जिंदगी के मैं;
कटा हुआ है, मेरा हिस्सा, है कोई गैर नहीं.
(कट के मुझ से अलग हुआ, है कोई गैर नहीं.)

दर्द मिला है 'मुसाफिर' जो जिंदगी के सफ़र में;
अब तो वो दर्द भी अपना है, है कोई गैर नहीं.

जीवन सफ़र

 सबके अपने रास्ते अपने अपने सफ़र  रास्तों के काँटे अपने  अपने अपने दर्द अपनी अपनी मंज़िल अपना अपना दुख अपनी अपनी चाहते अपना अपना सुख सबकी अप...