Friday, 14 December 2012

चार आँखें थीं वो

चार आँखें थीं वो
लगता था तस्वीर से बाहर निकल कर
सीधे भीतर झाँक रहीं हों अंतस तक
दो आँखे उम्र दराज थी
पर गजब की चमक थी अनुभव की शालीनता की
दो बिल्कुल युवा आँखे थी
उनमें चमक थी भविष्य के भीतर झाँकने की
अपने संबल से भविष्य रचने की
पर एक समानता थी दोनो में
दोनो ही जैसे सामने वाले के भीतर झाँक लेती हों
और सहसा ही स्तब्ध करती है मन को
जैसे सब को खुद से जोड़ लेना चाहती हों
पर अगले ही पल एक निर्मल एहसास
सुख और शांति

Tuesday, 4 December 2012

आईना झूठ हो गया मेरा


आग-ए-दिल से धुआँ उठता ही नहीं;
दिल का जलना नज़र आता ही नहीं.

आईना झूठ हो गया मेरा ;
चेहरा उसका ये दिखाता ही नहीं.

साफ़ दिल पाक भी है मेरा;
बाद उसके कोई भाता ही नहीं.

गैर मुमकिन था जमाना बदले;
रवायतें मैं भी निभाता ही नहीं.

ये है तन्हा सफ़र 'मुसाफिर' का;
हमसफ़र साथ वो आता ही नहीं.

Thursday, 29 November 2012

स्त्री, पुरुष, प्रकृति और प्रेम

क्या यह कहना सही होगा की "प्रेम पुरुष के जीवन की एक घटना है, स्त्री के जीवन का सर्वस्व ही प्रेम है" ?


प्रकृति की बाकी संरचनाओं  में स्त्री और पुरुष भी प्रकृति की संरचनायें हैं। प्रेम अक्षीर्ण शाश्वत उर्जा है, जो सब में प्रवाहित हो रहा है। बस फ़र्क ये है कि जल मे रहते- रहते मछली भूल जाती है कि उस के लिये जल का क्या महत्व है। फिर कोई घटना घटित होती है,और प्रेम मे होने और प्रेम मय होने का ज्ञान हो जाता है। प्रेम घटना के पहले भी था बाद मे भी, रही बात स्त्री और पुरुष के प्रेम को समझने की तो दोनो की अपनी प्रकृति है। परन्तु प्रेम दोनो के लिए एक ही है, उसे समझने का तरीका अलग हो सकता। हां स्त्री प्रकृति के ज़्यादे करीब होती है,वह प्रकृति की तरह ही जननी, और पुरुष प्रकृति द्वारा रचा गया प्रकृति का संरक्षक, वो प्रेम को जल्दी समझ जाती है, पुरुष को थोड़ा वक़्त लगता है। 'प्रेम पुरुष के जीवन की एक घटना मात्र है' यह सत्य नहीं हो सकता। बस वह इन्हे घटनाओं के बाद समझ पाता है। 'स्त्री के जीवन का सर्वस्व ही प्रेम है', ऐसा भी नहीं है, हां पर प्रकृति के ज़्यादे करीब होने की कारण प्रेम को कम समय में सघन रूप से महसूस करने की उसकी क्षमता अदभुद है. 
प्रेम की पूर्णता तभी है, जब स्त्री और पुरुष की भिन्नता मिट जाए। उसके पहले जिसकी हम बात कर रहे हैं, वो शायद प्रेम नहीं है। इसी लिए प्रेम स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न नहीं हो सकता, वहाँ ना तो स्त्री है न पुरुष। 

Monday, 19 November 2012

अब तक जिन आँखों से ही देखी मैं ने दुनियां














अब तक जिन आँखों से ही देखी मैं ने दुनिया;
वो आँखे बदल गयीं या कि बदल गयी दुनिया.

साँसों की रफ़्तार में जैसे धुधला सा जीवन;
खोजता है खुद को जो गुम गयी कहीं दुनिया.

मृग तृष्णा सा लगता क्यूँ है ये सारा जीवन;
खुद से दूर सदा खोजे और खुद में ही दुनिया.

बाहर की दौड़ में सारा ख़त्म हुआ जीवन;
फिर ये समझ आया, थी भीतर असली दुनिया.

और 'मुसाफिर' प्रेम की खातिर जो भागा दौड़ा;
रुक कर जो भीतर देखा थी प्रेम सरस दुनिया.

Thursday, 1 November 2012

कवितायें 'अज्ञेय' की

कवितायें 
'अज्ञेय' की
समझ नहीं आता
या कि मैं समझना नहीं चाहता
कि बुद्धि के स्तर पर समझते हुए
कहीं छूट न जाये उनका मर्म
क्यों कि कोई रास्ता नहीं है
बुद्धि से हृदय तक.

Wednesday, 24 October 2012

समझने को कहाँ कुछ भी रहा अब


समझने को कहाँ कुछ भी रहा अब;
कब  वो समझा अपना, मेरा रहा कब.

कि खुद में जलने का भी मज़ा है;
मैने उस से शिकायत ही किया कब.

गैर होकर भी जो लगता था अपना;
अपना होकर वो गैर ही हुआ अब. 

जाँच तफ़सील से ज़रा कर लो तुम;
दिल मेरा था कभी उसका हुआ अब.

'मुसाफिर' हूँ अंधेरों से नहीं डरता हूँ;
अंधेरा अपना रहा, उजाला हुआ कब.

Tuesday, 23 October 2012

वो कहते हैं, ग़रीबी कम हुई है
















वो कहते हैं
ग़रीबी कम हुई है
जानते हो कहाँ कम हुई है
बस आकड़ों में कम हुई है
क्यों कि उन्होंने तय कर दिया है
कि एक दिन में २६ रुपये या ज़्यादे कमाने वाला ग़रीब नहीं है

मैं चाहता हूं
मैं उनकी जेब में २६ रुपये रख कर सड़क पर छोड़ दूं
और वो तय करें की उन्हे दिन कैसे गुज़रना है

मैं भी देखना चाहता हूं
कि लाखों की गाड़ी मे चलने वाले
करोड़ों अरबों रुपये गबन करने वाले
इस बढ़ती हुई महगाई में, २६ रुपये में  कैसे दिन कटते हैं, और 
किस तरह तय करते हैं, ३०% आम जनता के दिन का खर्च

Saturday, 13 October 2012

नाई की दुकान














नाई की दुकान पर पहुँचा ही था,
कि नई उम्र के लड़के ने तपाक से बोला,"बैठिए".
उम्र दराज चचा बैठे शांत.
इंतज़ार, हम उम्र ग्राहकों का.
जो उनके साथ बातें करते हैं,
चाय पीते हैं, और हजामत बनवाते है.
पर क्या हो अगर, उम्र दराज ग्राहकों का नज़रिया भी बदल जाए.
उन्हे भी नये लड़के से बाल कटवाना पसंद आए.

Wednesday, 3 October 2012

मजबूर आदमी













हर जगह मजबूर होता आदमी;
इंसानियत से दूर होता आदमी.

फिर बचाने को अपना वजूद;
आदमी से जूझता है आदमी.

दौड़ता है, भागता है भीड़ में;
आदमी को रौंदता एक आदमी.

शहर की गहरी अंधेरी जिंदगी;
खुद को कहाँ पहचानता है आदमी.

Tuesday, 2 October 2012

जिंदगी क्या है और क्या नहीं


लौट कर तुमको मिलेंगे फिर वहीं;
रास्ते जाते कहाँ हैं फिर कहीं.

चलना है, बस चलना ही है जिंदगी;
हैं कहाँ, कोई यहाँ मंज़िल कहीं.

तुम किनारों पर भले महफूज़ हो;
हो समंदर के बिना कुछ भी नहीं.

चाहतों को इस कदर न चाहना;
कि जिंदगी को लगे, है ही नहीं.

'मुसाफिर' हो आज़ाद दिल से सोचना;
कि जिंदगी क्या है, और क्या नहीं.

'एक शाम ग़ज़ल के नाम'



ग़ज़ल को बेहद संजीदगी से पेश करने, और उसी संजीदगी से सुनने, समझने और महसूस करने वाले लोग, उस एक शाम को अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स एण्ड लिटरेचर के म्युसियम हॉल में इकठ्ठे हुए और आगाज़ हुआ 'एक शाम ग़ज़ल के नाम' कार्यक्रम का| सत्यानारायण 'सत्या' जी की किताब 'यह भी एक दौर है' के लोकार्पण से शुरू हुई शाम, विनोद सिन्हा जी के ग़ज़लों व 'डायलॉग' के एक और खूबसूरत शाम के वादे के साथ ख़त्म हुई| महफ़िल में इस दौर के मशहूर शायरों व कुछ नये शायरों ने अपने शेर और ग़ज़ल पेश किए| ग़ज़ल को तरन्नुम में सुनाकर अपनी बात को और गहरे से महसूस कराने वाले शायरों ने ऐसी समाँ बाँधी जो सुनने वालों की जेहन में याद बनकर रहेगी| नये शायरों के ग़ज़ल को सराहा गया और उनकी हौसला अफजाई की गयी और उन्हे आगे और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिली| इस तरह की महफ़िल नये शायरों के लिए वैसे ही है, जैसे नये पौधों को खाद व पानी मिलना, जिस से उन्हे कुछ नया लिखने की सोच और उर्जा मिलती है|
ग़ज़ल एक सशक्त माध्यम है, और सुंदर प्रस्तुति इसके एहसास को और गहरा बना देती है| विनोद सिन्हा जी, श्री कांत सक्सेना जी, अमितेश जैन जी, अजय 'अज्ञात' जी, मनोज अबोध और आनंद द्विवेदी जी की ग़ज़लों ने जिंदगी, मोहब्बत और समाज पर की गयी बातों से महफ़िल में लोगों पर गहरा असर छोड़ा। महफ़िल में आये लोग इस शाम की याद संजोए कुछ नये लोगों से मिलने के खूबसूरत एहसास के साथ विदा हुए। मैं भी कार्यक्रम के संयोजक श्री मिथिलेश श्रीवास्तव जी (कवि तथा कला एवं थिएटर समीक्षक ) के साथ वहां से चल पड़ा ।

Tuesday, 25 September 2012

कब चाहा पंख और ख्वाब गगन

जाने कब कैसे ख्वाबों के पंख मिले;
जाने कब कैसे उड़ाने की चाह मिले.

जब-जब जीवन से इस पर तकरार हुई है;
मुझको जीवन से बदले में आह मिले.

मैं ने कब चाहा पंख और ख्वाब गगन के;
मैं ने चाहा टूटे दिल को बस एक राह मिले.

जब भी मैं ने यह सवाल किया जीवन से;
बदले में एक और दर्द और एक आह मिले.

Friday, 14 September 2012

मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ


शाम के धुंधले प्रकाश में
मेरा खुद से बातें करना
दीवारों को छू कर खुद का होना, महसूस करना
महसूस करना कि श्वासों की निरंतरता ही प्राणों की गति का प्रमाण है.
मेरा अस्तित्व तो अनुभूतियों की गहराई में उतर कर, 
शून्य के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है.
तुम नहीं समझ सकते मैं कहाँ हूँ,
क्यों कि तब मुझे भी नहीं पता होता, मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ.

Wednesday, 15 August 2012


जीवन के क्षितिज पर
गहरे, स्याह, लाल और पीले रंग में
नयी रोशनी की तरह
दिखाई देते हो,तुम ही तो हो.

जीवन के एकांत और अंधेरी रात में
आकाश में चाँदनी लिए
जो देता है,जीवन को शीतलता.
चाँद, तुम ही तो हो

जीवन के नव-दिवस पर
आगे बढ़ने की प्रेरणा देते
अप्रतिम रोशनी बिखेरते
सूरज, तुम ही तो हो.

Thursday, 26 July 2012


सरहद पार पाकिस्तान में और इधर हिन्दुस्तान में रहने वाले कुछ लोग अब भी दिल से दुआ करते हैं, की ये सरहदें ख़त्म हो जायें...........

खोया है, लोगों ने, कुछ इधर भी उधर भी;
बिखरी कुछ जिंदगी है, इधर भी उधर भी.

है ज़रा सी दूरियाँ बस सरहदों की;
दिल तो एक जैसा है, इधर भी उधर भी.

माना चोट बरसों पुरानी थी लगी;
दिल में उठती टीश है, इधर भी उधर भी.

वक्त के पत्थरों पर जो लिख गया;
इबारतें दिल मे खुदीं हैं, इधर भी उधर भी.

बिछड़ों से मिलने की चाहते जो जिंदा हैं;
सीने में एक तड़प है, इधर भी उधर भी.

Tuesday, 17 July 2012

हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.
प्रेम सरस कुछ नाहीं जाग में;
यह विश्वास रहे.

तोड़ जगत के आडंबर सब;
हेरत प्रेम रहे.
हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.
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हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.
जब खोजत, जग जाय हेराय;
तब सुख-प्रेम मिले.

खोजत रहे प्रेम जो बाहर;
भीतर आन मिले.
हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.
-----------------------------

हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.
धरती का आधार सकल शुभ;
बरसत प्रेम रहे.

जो जाने प्रेम रस मीठा;
सकल प्रेम बने.
हृदय स्नेह भरे;
नयनन नीर बहे.

Saturday, 23 June 2012


यूँ तेरा आना;
मेरे दिल का लुट जाना.

तुझसे मिलना;
जैसे मेरा खो जाना.

हवाओं कहना;
क्या होता है होना दीवाना.

बादल ने जाना;
कैसे इतराना है, इठलाना.

धरती ने जाना;
प्यार के बूँदो को तरस जाना.

पेड़ों ने जाना;
झूम, हवाओं से मिलके जाना.


यूँ तेरा आना;
मेरे दिल का लुट जाना.

Sunday, 3 June 2012

शाम भी अजनबी सा मुझे ढूढ़ता रहा;
मैं याद मे तेरी कुछ यूँ खोया हुआ रहा.

देखता हूँ दरवाजे पर दस्तक हो तुम दिये;
तेरी याद से जागा, बस वो झोका वहाँ रहा.

आरजू-ए-दिल से इंतज़ार के सफ़र में हूँ;
मोहब्बत का रास्ता ये कभी छोटा कहाँ रहा.

इस दौर-ए-मोहब्बत को यूँ जी रहा हूँ मैं;
तूँ देख ज़रा गौर से, मैं अपना कहाँ रहा.

मैं कह रहा हूँ नाम 'मुसाफिर' ही है मेरा;
'तेरा चाहने वाला हूँ' यही हर सख्स कह रहा.

Friday, 25 May 2012

अचानक एक ख़याल आया;
जीवन के सन्दर्भ में 
प्रेम और भोग के सन्दर्भ में.
प्रेम एक उन्मुक्त आकाश देता है;
जिसमे आप हर तरह के बंधन और भय से मुक्त हैं.
सदा सर्वदा के लिए.

भोग जीवन एक बंधन है;
हम बंधन में होते है.
वैसे ही जैसे खूटें से बँधी गाय;
अगर मुक्त भी कर दो तो,
उसे नही पता कहाँ जाना है.
और लौट कर खूँटे के पास ही आती है.

पर इनसे परे एक चेतना है हममें;
जो हमें भोग के रसातल बंधन से,
प्रेम के उन्मुक्त आकाश तक ले जाती है.
और उस पल में आप आकाश को उन्मुक्त भाव से जीते हैं.
बिना बंधन के.
पूर्ण जीवंत.

सोचता हूँ जब भी मैं कि जिंदगी ये जी लिया;
देखता हूँ मैं कि सब कुछ अधूरा रह गया.
वासना की भूख को जीवन भटकता ही रहा;
प्रेम अमृत के लिए जीवन ये छोटा रह गया.

जाऊं अब पूछूँ मैं किसे प्रेम की जीवंतता;
वासना में लिप्त मैं जो सदा मूर्छित रहा.
दौड़ता हूँ,भागता हूँ,कि बंधनों से मुक्त हूँ;
मुझको खबर ही ना रही,मैं उलझता ही रहा.

प्रेम हो, निर्लिप्त हो, वासना से मुक्त हो;
संभावना ऐसा घटित होने को थोड़ा ही रहा.
मुझसे मिला,हाथ थाम्हा,छोड़ कर चल दिया;
जिंदगी की उलझनों में मैं तो तड़पता ही रहा.

Sunday, 6 May 2012

खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.

इस तरफ भी वही है, वो ये मानता नहीं;
कैसे हों पार तैरना तो जानता नहीं.

अब तक मेरे वजूद को झुठला रहा है वो;
कहता है कि मुझ को पहचानता नहीं.

मैने कहा मैं बस मोहब्बत का पैगाम हूँ;
वो, मोहब्बत है क्या ये जानता नहीं.

जाना ये जब से दिल में इबादत का दौर है;
उसके सिवा कुछ भी मैं माँगता नहीं.

दुनिया की दौड़ तो है मंज़िल की चाह में;
उसके बगैर मंज़िल कोई मैं जानता नहीं.

मैं दौड़ता 'मुसाफिर' इस पार से उस पार;
खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.

Sunday, 25 March 2012

जिंदगी पूछ ही लेती है जीने का सबब

हर कदम चल के,मैं सोचता हूँ,ये क्या हुआ;
जब ठहरता हूँ,तो पूछता हूँ,अब क्या हुआ.

तू दौड़ कर बहुत दूर निकल जाए तो क्या;
देखना तुझपे,तेरे होने का असर क्या हुआ.

मुश्किलें आएँगी तो आए सफ़र के दौरान
जो आसान ही हुआ तो फिर सफ़र क्या हुआ.

जिंदगी पूछ ही लेती है जीने का सबब यूँ;
कि तमाम उम्र गुज़ार ली हासिल क्या हुआ.

जिसे तू तजुर्बा कहता है,वो तेरा अपना नहीं;
जो जमाने से मिला है,वो तेरा अपना न हुआ.

वो जाने की राह तो आने से अलग होगी ही;
आने-जाने के दर्मयाँ तेरा अपना क्या हुआ.

क्या मिला है 'मुसाफिर' इस सफ़र के दौरान;
जो तेरा खुद का रहा हो ऐसा तजुर्बा क्या हुआ.

Friday, 23 March 2012

और मैं!!

१. अझुली भर फूल/
प्यार भरा दिल/
आकाश मे उड़ता पंछी/
और मैं.

२. बहती हुई नदिया/
उड़ता हुआ बादल/
हवाओं मे खुशबू/
और मैं.

३. पेड़ पर पत्ते/
पत्ते पर बारिश/
बारिश की बूंदे/
और मैं.

४. झूमता बसंत/
घने काले बादल/
नाचता मोर/
और मैं.

५. सूरज पश्चिम में/
हल्की रोशनी/
तुम्हारी यादें/
और मैं.

Wednesday, 21 March 2012

अपने गाँव की ज़मीं

अब तो लगता है की मुर्दा हो गया हूँ मैं.
शहर में आकर देख तो कैसा हो गया हूँ मैं;

देख कर गाँव की ज़मीं, पेड़ और घर की देहरी;
छलक आये आँसू, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

कभी पुरुआ, कभी पछुआ, आती ये हवाए;
छू जाएँ बदन को, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

मिट्टी से उठती हुई एक सोंधी सी महक;
दिल में बस जाए, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

अपने गाँव की ज़मीं में गुज़ार कर जिंदगी;
दफ़न हो 'मुसाफिर',तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

Monday, 19 March 2012

है बस प्रेम की संभावना

निश्तेज हो फिर सूर्य भी; 
उतर आए यदि मेरे मन आकाश में.
है मेरी ये सौम्यता; 
निर्विकार सी, चंद्रमा सी ही सधी.
पृथ्वी सी सहनशीलता;
आकाश सा विस्तृत हृदय,
है देखता, सबको खुद में देखता. 

लो फिर से मैं गढ़ रहा हूँ;
प्रेम की अवधारणा,
खुद से, खुद के प्रेम की, क्या है विकट संभावना?
खुद में सबको देखना;
या सब मे खुद को देखना,
एक ही पर्याय है,है ये बस प्रेम में संभावना.
निरुत्तरित क्यों हो रहा;
ये विस्तृत आकाश भी,
मेरे मन आकाश में, है बस प्रेम की संभावना.

Monday, 12 March 2012

रात जम के बारिश तो हुई


यहाँ,रात जम के बारिश तो हुई;
पर दिल का आँगन सूखा ही रहा.

महफ़िल में लोग भी आए थे;
पर महफ़िल दिल का सूना ही रहा.

मेरी आँखे तो थीं ढूढ़ रही;
पर मेरा आईना तो झूठा ही रहा.

वो एक समंदर है मेरा;
मैं एक दरिया सा बहता ही रहा.

फूलों का ख्वाब सजाए हुए;
मैं काँटों का साथ देता ही रहा;

पल साथ मिले जी भर जी लूँ;
तिल तिल कर पल जीता ही रहा.

ज़रा वक़्त लगेगा


मेरा हौसला देखोगे तो न वक़्त लगेगा; 
पर हालत समझने में ज़रा वक़्त लगेगा.

चेहरे की रौनक तो दिख जाती है दूर से;
पर दिल को समझने में ज़रा वक़्त लगेगा. 

कहते हो न जाओगे अब मुझसे दूर तुम;
जाओगे तो पास आने में बहुत वक़्त लगेगा.

तकलीफ़ ये नहीं की दिल ये साफ़गोई है;
बस जमाने को समझने में ज़रा वक़्त लगेगा.

मैं दूर का 'मुसाफिर' चलना ही जिंदगी है;
मुश्किलों का सफ़र कटने में ज़रा वक़्त लगेगा.

Saturday, 10 March 2012

तुम मुझे भूले नहीं ये जानकार अच्छा लगा


तुम मुझे भूले नहीं ये जानकार अच्छा लगा;
जैसे किताबों में फूल, सूखे ही सही काफ़ी तो हैं.

मिल न सके हम,यादों का आना अच्छा लगा;
डूबे न किनारे, लहरों का छू जाना काफ़ी तो है.

दौड़ कर तुमसे लिपट जाऊँ ख़याल अच्छा लगा;
मुझको छूकर तुम तक गई,ये हवा काफ़ी तो है.

मैं एक क़तरा जिंदगी, तुम समंदर अच्छा लगा;
तुम नहीं न सही, अश्को का समंदर काफ़ी तो है.

Thursday, 8 March 2012

होली


आए बसंत भर जाये फूलों से झोली;
ऐसे मे खेले ये मन प्रकृति भी होली.

आसमान में बादल की रंग बिरंगी टोली;
जो इठला- इठला के करें हँसी ठिठोली.

पिया रंग में रंगी जो चुनर ये ओढ़ ली;
अब तो बस खेलूँ मैं पिया रंग की होली.

पिया को कैसे कह दे, मधुर हो होली;
जब तक मन से मैं न पिया की हो ली.

Saturday, 3 March 2012

सत्य है,तुम्हारा अकेलापन



तुम भीड़ में भी कितने अकेले हो,
ठहर कर देखो.
तुम भाग नहीं सकते,
ख़ुद से और इस भीड़ से.
पर तुम बिलकुल अकेले हो,
और तुम्हे जीना होगा इस सच्चाई को.
उस पल में सुनते हो लोगों को, 
या नहीं सुनते,
पर तुम्हारे भीतर है एक आवाज.
आवाज जो बार बार कहती है, 
कि तुम  अकेले हो.
ऐसा होता है,
जब तुम भीड़ में होते हो.
पर क्या भीड़ तुम्हे जान पाती है.
नहीं, नहीं जान पाती.
तो फिर तुम भीड़ में अकेले हुए.
सत्य यही है,
तुम अकेले आये थे, अकेले जाओगे. 
बाकी सब भ्रम है.
सत्य है, तुम्हारा अकेलापन.

Thursday, 16 February 2012

गर्दिश-ए-शाम बन गया हूँ मैं


गर्दिश-ए-शाम बन गया हूँ मैं; 
तेरे पहलू से जो उठ गया हूँ मैं.

आईना देखता हूँ, मैं तुझको पाता हूँ;
कि नज़र हो तेरी, और बयाँ हूँ मैं.

अपना साया भी तो अपना न रहा;
बिछुड़ के तुझसे यूँ तन्हा हूँ मैं.

ज़ख्म तेरा हो या मेरा हो;
अपने इस दिल मे जी रहा हूँ मैं.

है 'मुसाफिर', है मोहब्बत का सफ़र;
आश है तेरी तो चल रहा हूँ मैं.

Thursday, 2 February 2012

काश मैं बदल सकता वक़्त


गुज़रते हुए देखें हैं, साल कई;
गुज़रते हुए देखें हैं, लोग कई.

पर दर्द असहनीय और गहरा देखा;
जब बेटे को पिता के कंधों पर जाता देखा.

काल से पूछता हूँ, क्या वो भी है किसी का बाप;
या सिर्फ़ बना है, ऐसों के लिए अभिशाप.

सुना है आत्मा अजर है, अमर है;
किंतु नही समझना चाहता इसे.

सिर्फ़ समझना चाहता हूँ वो दुख;
जब देखता हूँ, अश्रु पूरित नेत्र.

नही है कोई अधिकार;
नही बदल सकता मैं वक़्त.

पर काश मैं बदल सकता ..............