Wednesday, 21 March 2012

अपने गाँव की ज़मीं

अब तो लगता है की मुर्दा हो गया हूँ मैं.
शहर में आकर देख तो कैसा हो गया हूँ मैं;

देख कर गाँव की ज़मीं, पेड़ और घर की देहरी;
छलक आये आँसू, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

कभी पुरुआ, कभी पछुआ, आती ये हवाए;
छू जाएँ बदन को, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

मिट्टी से उठती हुई एक सोंधी सी महक;
दिल में बस जाए, तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

अपने गाँव की ज़मीं में गुज़ार कर जिंदगी;
दफ़न हो 'मुसाफिर',तो लगे की जिंदा हूँ मैं.

2 comments:

  1. हर शेर गहरा एहसास लिए ... गाँव की यादों में डुबो रहा है ...
    बेहतरीन शेर हैं सभी ....

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    1. आपको पसंद आये इसके लिए सहृदय आभार.

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