Saturday, 19 December 2015

प्रेम-वासना

प्रेम
निर्लज्ज कर देता है
स्त्री को
खोल देती है अपना स्तन
अपने बच्चे के लिये
चलती ट्रेन या बस में

वासना
निर्लज्ज कर देती है
पुरूष को
वो नापने लगता है
उभार गोलाई और तन्यता

प्रेम
निर्लज्ज कर देता है
एक वृद्ध पुरूष को
चूम लेता है वो
पत्नी को
सब के सामने

वासना
निर्लज्ज करती है
पुरूष को
और वो नग्न हो कर
हो जाते है वासना रत
सागर तट या पार्क बेंच पर

अन्तर है
प्रेम और वासना से उपजी
निर्लज्जता में

पर पहले
समझना होगा
प्रेम और वासना को



Monday, 16 November 2015

बहुत कुछ पा लेने की दौड़ में
बहुत कुछ छूट जाता है पीछे
जैसे नदियाँ निकल जाती है
दूर सागर से मिलने पीछे छोड़ जाती है
सदियों का सफ़र
इंसान बहुत कुछ पाने की दौड़
अपनी नीड़ से दूर अपना अस्तित्व तलाशता है
पर इस बहुत कुछ पाने और खोने के सफ़र के बीच
इंसान हर रोज़ नये स्वरूप में ख़ुद को जीता है
अस्तित्व की तलाश में छद्म अस्तित्व को बुनते गढ़ते
और तोड़ते हुए

Tuesday, 27 October 2015

रोटियाँ

(१)
रोटियाँ
चूल्‍हे पर पकती है
सिर्फ़ रोटियाँ पकती है
ऐसा तो नहीं है
साथ में पक रहा होता है
मन में प्रेम
और कि किसे पता
रोटियों मे भी पकता हो प्रेम
या की प्रेम मे पक जाती हो रोटियाँ
और उस में बस जाती हो एक ख़ुश्बू
और मिठास

(२)
रोटियाँ
चूल्‍हे पर पकती हुयी
सूखा देती है खुद का पानी
या की पानी के सूखने से
तय होता है
उनका पकना
और जिंदगी की धूप में
इंसान का पकना
तय होता है
आँखो से पानी के खो जाने से
चेहरे और होठ की बनावटी हँसी के साथ
आँखों का साथ न दे पाने से

Friday, 16 October 2015

कविता

समाज की गहरी मानसिकता को उभारती,
और गहरे से एक दूसरे से गूँथती
कविता जो हृदय पर उकेर देती है
सजीव भावनाओं के चित्र
भर देती है उमंग से
साहस से लबरेज़ करती कविता
जीवन के कठिनाइयों से शतर्क करती कविता
कविता जो कहती है हार मत मानना
लड़ते रहना विषमताओं से
कि बाँधा सको हिम्मत
आने वाले कल में
क्यों की मानव की खाल ओढ़े
जानवर आज भी हैं
कल भी होंगे।

Saturday, 10 October 2015

स्तब्ध, निरुत्तर और निर्जीव!!!

मुश्किल होता है समझ पाना
या की खुद को समझा पाना
जब आप किसी के साथ चल रहे हो
और उस के साथ होने का एहसास हो
और तभी वो बिना कुछ कहे
यूँ आहिस्ता से आप से दूर चला जाए
और कुछ भी समझना मुश्किल हो
बस आप खड़े रह जाए
स्तब्ध, निरुत्तर और निर्जीव!!!

Thursday, 8 October 2015

तुम्हारी कविता के शब्द,दलाल के शब्द जान पड़ते है

जब मैं तुम्हारी बाज़बजाती गंधाती सोच को सुनता हूँ
तो मुझे तुम्हारी कविता के शब्द
उस दलाल के शब्द जान पड़ते है
जो एक स्त्री को वेश्या कह कर
उस की कीमत लगा रहा होता है
सत्ता के गलियारों में
लखटकिया पुरस्कार में बिक चुकी
तुम्हारी बेगैरत सोच मुझ में नफ़रत पैदा करती है
जब लोगों के कानों में एक व्यक्ति की चींख गूँजती है
जब उस की मौत कइयों को डर से सोने नहीं देती
तब तुम्हारी कविता मछली और सागर की बात करती है
तब मुझे तुम्हारे शब्द नीरो के कानफोड़ू बांसुरी जैसे लगते है
तुम्हारी कविता प्रेम और परमात्मा की बात करती है
तब मुझे लगता है की ये शब्द झूठे है
जो महसूस नहीं कर पता है उस चींख को
वो कैसे दावा करता है प्रेम और परमात्मा की
तुम्हारे चरित्र और तुम्हारी कविता दोनों भौंडे लगते हैं

Sunday, 4 October 2015

बाँधते बाँधते ज़िंदगी में बिखर जाते है

बाँधते बाँधते ज़िंदगी में बिखर जाते है,
याद आये जो तुम अश्क़ ये ढ़ल जाते है।

तुम मोहब्बत में या समंदर में डूबो,
ढूँढो तो हाथ में मोती ही बस आते है।

गिर के उठना, फिर गिर के सम्हालना,
वक़्त के साथ ये हुनर सीख ही जाते है।

बाँधते छूटते अरमानों के धागे है ये,
हर एक मोड़ पर तन्हा ही तो रह जाते है।

ज़िंदगी बदले चाहे कितने मोड़ भी लेकिन,
सफ़र हो तन्हा, 'मुसाफ़िर' ही कहलाते है।

Sunday, 20 September 2015

अब यही फ़ैसला कर लिया

अब यही फ़ैसला कर लिया;
हम ने खुद से गिला कर लिया|

खुद से जाने लगा दूर जब;
तोड़ कर आईना रख दिया|

हम से सम्हला नहीं दर्दे दिल;
आँसुओं ने दगा कर दिया|

देर लहरों को देखा किया;
आ कर वापस चला जो गया|

रूठी हैं मंज़िलें तो भी क्या;
फिर 'मुसाफिर' सा चलता गया|


Tuesday, 1 September 2015

वह जो मैं हूँ ही नहीं

यूं कि फिर से अंजान हो जाऊँ तुम्हे,
कि तुम मुझे जानने पहचानने लगे।

हो जाना चाहता हूँ
फिर से अपरिचित 
मिटाने को एक भ्रम 
भ्रम की तुम जानने लगे हो 
मुझे, तुम पहचानने लगे हो 
बिना उतरे हुए प्रेम में 
तुम ने परख़ लिया 
अपने तर्कों पर 
वह जो मैं हूँ ही नहीं 

शब्द प्रहार करते है

मैं ने  हाथ बढ़ा कर
छूना चाहा पारस को
की भर दे अपनी कुछ चमक
वो कहता है, 'थैंक यू '
और मैं कई कदम पीछे धकेला जाता हूँ
और कुछ टूटता है
शब्द प्रहार करते है
एक गहरे आघात के साथ
बिना आवाज़ किये

प्रेम जीवंतता में अमर

प्रेम शब्द का
ठीक ही होगा
मन मस्तिष्क से सूख जाना
प्रेम जीवित होता है
अपनी जीवंतता में
परिभाषायें मृत कर देती है


एक गहरी सजगता में
जहाँ नही होता मन
मन मे उपजे विचार और तर्क
परिभाषायें मृत हो जाती है
और प्रेम उन्हीं पलों में 
जीवंत हो कर अमर हो जाता है
सदा के लिए, एक जीवंत अनुभव 

Monday, 24 August 2015

प्यार

प्यार का एक नूरानी असर माँ के चेहरे पर झुर्रियों में लिखी आयतों में पढ़ने की कोशिश करता हूँ,
और माँ को हर एेसे ख़ूबसूरत चेहरे के पीछे छुपे ख़ूबसूरत दिल से, आँखो से झाँकते हुए देखता हूँ,
और देखता हूँ, आँखो के कोरों पर ठहरी हर दिन प्यार की रोशनी में, ओस को चमकते हुए
कुछ पिताओं के चेहरे भी माँ की तरह ख़ूबसूरत हो जाते है,
शर्त बस ये है कि वो अपने बाप होने के अहंकार से बाहर निकल आये
प्रेम वहाँ भी अपना डेरा डाले रहता है, बस अहंकार पर्दे की मानिद ढ़क लेता है,
सब कुछ माँये उससे कब का पीछा छुड़ा लेती है

Sunday, 9 August 2015

नेता,जनता,धर्म,स्त्री

नेता-भांड,
सब कुछ बेच सकता है,
ख़ुद के ज़मीर के बिक जाने के बाद।

जनता-हिजड़ा,
ताली पीटती है किसी भांड के बोलने पर।
नाचती है जीतने पर,नये शुभ अवसर पर।
नहीं कोई इंसाफ़, समाज से अलग जीने पर।

धर्म-बाज़ार,
सब कुछ बिकता है भय दिखा कर।
शरीर की लोलुपता को केसरिया हरा पहना कर।

स्त्री-प्रकृति,
लड़ती ख़ुद के अस्तित्व को पुरूष से।
गर्भ में, घर में, समाज में उन को जन्म दे कर।

Saturday, 8 August 2015

महसूस कर सकता हूँ

महसूस कर सकता हूँ
ख़ुश्बू को हवाओं में
खुद को तुम्हारी बाहों में
तुम्हारी तस्वीर निगाहों में
महसूस कर सकता हूँ
जैसे बादल घिर आए हों फ़िज़ाओं में
जैसे तुम दूर होकर भी हो निगाहों में
जैसे झील उतर आये आखों में
महसूस कर सकता हूँ
जैसे पतंग से जुड़ी डोर
जैसे बसंत मे नाचे मोर
जैसे धरती तड़पे, घन बरसे घनघोर
महसूस कर सकता हूँ
जैसे स्वाती के लिए चातक
जैसे चाँद के लिए चकोर
जैसे घन के लिए मोर
महसूस कर सकता हूँ

संवेदनाए

कई बार लगता है
तुम तक ना पहुँच पाना जैसे जिंदगी मे एक हार है
एक हार जो मैने खुद चुनी है
और देखता हूँ लोगों को चुनते हुए अपनी हार
क्यों की उन्होने चुना है उचाईयों को चढ़ना
और सच यही है की उचाईयों को चढ़ने के इस उपक्रम में
हम अपनों से बहुत दूर हो जाते हैं
और धीरे धीरे खो देते है संवेदनाए
वो संवेदनाए जो ताक़त थी हमारी
और हम हार जाते हैं उचाईयों पर
हम खो देते हैं, खुद को संवेदनाओं के साथ

Monday, 13 July 2015

ज़िन्दगी एक सफ़र होता है

ज़िन्दगी एक सफ़र होता है;
सबकी बातों का असर होता है।

प्यार के लफ़्ज़ कह कर देखो;
दिल को सुकून-ए-नज़र होता है।

तुम ठहर लो कहीं भी लेकिन;
घर तो आख़िर घर ही होता है।

टूटता है दिल तो दर्द बहुत होता है;
कोई जान कर भी बेख़बर ही होता है।

हम ने देखे, अपने, पराये भी;
मौत आये तो कौन किधर होता है।

लोग मिलने तो आया करेंगे लेकिन;
जाने दिल कौन सा रंग लिये होता है।

तुम 'मुसाफ़िर' हो तुम नहीं रूकना;
मौत से पहले ख़त्म सफ़र कहाँ होता है।

Wednesday, 24 June 2015

कुछ दीवारें जिंदा रहेंगी मौत के आने तक

कुछ दीवारें जिंदा रहेंगी मौत के आने तक;
तुम से मिलेंगे ख्वाबों में फिर नींद के आने तक|

ठहरी हुई सी शाम को अक्सर यादें आती है;
आधी रात गुजर जाती है, चाँद के आने तक|

दस्तीनों से लंबे हुये उन सापों के किस्से;
जिन को हम पाला करते है, काटे जाने तक|

एक ग़रीबी जुर्म हो जैसे घुट घुट मरने को;
और अमीरी जिंदा है जैसे ग़रीबों को खाने तक|

लाश कोई है चीख के कहती कत्ल हुआ हूँ मैं;
कातिल नेता पैसा से बोला जेल में जाने तक|

मंदिर न देगी मस्जिद न देगी एक निवाला भी;
देव न अल्लाह कोई नहीं इंसान हो जाने तक|

देखो 'मुसाफिर' तुम भी हो और हैं हम भी तो;
साथ चलें मोहब्बत से रहे फिर मौत के आने तक| 

Monday, 20 April 2015

एक ही शख्स है

एक ही शख्स है, इस दिल को दुखाने वाला,
और वही शख्स है, इस दिल को लुभाने वाला|

दूर रह कर कोई तकलीफ़ कहाँ देता है,
जख्म-ए-दिल देता है, कोई पास तक आने वाला|

मैं परेशान हूँ, या दिल है धड़कता यूँ ही,
ये समझता है, वही दिल तक करीब आने वाला|

ज़रा सम्हल के गिन ही लूँ मैं अपनी साँसें,
ये ठहर जाती है, जब भी होता है वो आने वाला|

तुम सरे राह 'मुसाफिर' ना करो यूँ तकरार,
ये मोहब्बत मिले जब दिल हो कोई चाहने वाला|



Wednesday, 1 April 2015

ख्वाब आँखों से जो छूटे

ख्वाब आँखों से जो छूटे;
तो मैं जगा हूँ अभी|

डूबता जाता हो दिल ये;
तो इरादा हूँ अभी|

आश खोजो जो दिल में;
तो मैं वादा हूँ अभी|

मय पी है, मोहब्बत नहीं;
तो मैं प्यासा हूँ अभी|

खोजो काली रात की ताक़त;
तो चाँद सा हूँ अभी|

मैं 'मुसाफिर' ही हूँ अभी;
तो रहजदा हूँ अभी|  

Monday, 9 March 2015

पुरुष, स्त्री, प्रकृति

पुरुष, तुम प्रकृति (स्त्री) से जन्मे
प्रकृति का ही एक हिस्सा हो
प्रकृति होने को, खुद को जानने को
जानना होगा तुम्हे प्रकृति को
क्यों की तुम उसी के हो
या कि तुम भी वही हो

स्वयं के संरक्षण के लिए
प्रकृति द्वारा रची एक कृति
और पाल बैठे तुम एक अहंकार
खुद के होने का अहंकार
समझ बैठे प्रकृति को अपनी जागीर
वस्तुतः नहीं है, तुम्हारा कोई अस्तित्व

तुम अपूर्ण, पूर्ण होने के लिए
जानना होगा प्रकृति को
करना होगा उसे प्रेम
बिल्कुल उसके प्रेम जैसा निश्छल
त्यागना होगा तर्क और अहंकार
जीवंत करना होगा खुद के भीतर स्त्रीत्व

फिर तुम नाचते गाते देख सकोगे
जान सकोगे उसका प्रेम स्वरूप
तुम्हे जीवित ही रखना होगा
खुद के अस्तित्व को
और उसके लिए, रखना ही होगा
प्रकृति को जीवित खुद में

Wednesday, 25 February 2015

रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं

तेरी आस लगाये बैठे;
गुज़रे जाने दिन कितने है।

अब तो ये आलम है देखो;
लोग मुझे पागल कहते हैं।

तुम से नहीं तो यादों से हम;
रोज़ ही आठ पहर मिलते हैं।

दो से आठ पहर चढ़ते फिर;
ज्यों लहरें और सागर मिलते हैं।

कुछ तो सुध कर लो मेरी अब;
रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं।

ज़िंदगी पर न यूँ गुमां कीजै

भले ही मिले दुश्मनों की तरह;
उस से फिर भी बस वफ़ा कीजै।

हम ने देखा है, हथेली पर उगते सरसों;
बस ज़रा दिल में हौसला कीजै।

देश बँटता है, जब लोग बँटते है;
नेता जी कुछ तो अब हया कीजै।

कल सड़क पर अाप के गिरने की बारी;
थोड़ा रूक कर फिर तजुरबा कीजै।

मौत का दुश्मन या दोस्त ही है कौन;
अपनी ज़िंदगी पर न यूँ गुमां कीजै।