Sunday, 18 August 2013

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है


जाने फिर क्यूँ मुझे वो याद आया;
जाने फिर क्यू ये ख़याल आया.

जिस्म दो हैं, उसका और मेरा; 
जिसमें बसता है एक ही साया.

सुबह और शाम एक ही तो है;
बस ज़रा वक़्त का फासला पाया.

बेमियादी चाहतो का मतलब;
तो मौत के बाद ही समझ आया.

जब भी उसकी याद से लिपटा;
मैं खुद का कहाँ फिर रह पाया.

जितना दौड़ा पहुँचने को उस तक ;
खुद को उतना ही दूर मैं पाया.

मोहब्बत तो फकीरी से ही जिंदा है;
'मुसाफिर' चाहकर न ज़ी पाया.



8 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत आभार!!!

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  2. लाजवाब गज़ल ... उनकी यादें हों तो खुस कहां रह पाता है खुद ...

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    1. सहृदय आभार!!!
      हौसला मिलता है ऐसे.

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  3. बेहतरीन .सुन्दर अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाईयां.रक्षाबंधन की ढेर सारी शुभकामनाएं .

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    1. बहुत बहुत आभार !!!

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