Wednesday, 13 March 2013

सोचता हूँ आया था क्या ले कर

सोचता हूँ आया था क्या ले कर;
जाऊंगा जहाँ को मैं क्या दे कर.

मिलने का अंदाज अलग होता है;
लोग वो मिलते है फासला ले कर.

शाम ढलती है मैं भी ढलता हूँ;
फिर सम्हलता हूँ हौसला ले कर.

दुनिया में इंसान वो भी होते हैं;
खुश होते है दर्द किसी का ले कर.

जब दर्द सीने का हद से पार हुआ;
ज़मीन आती है ज़लज़ला ले कर.

तुम 'मुसाफिर',ये जिंदगी है सफ़र;
चलो काँधे पे सलीब अपना ले कर.

11 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रणाम!!!
      रचना को ज्यादे लोगों तक पहुँचाने के लिए सहृदय आभार|

      Delete
  2. बहुत सुन्दर और प्रेरक पोस्ट!
    साझा करने के लिए आभार!

    ReplyDelete
  3. Replies
    1. बहुत बहुत आभार !!!

      Delete
  4. शानदार गज़ल, हर शेर लाजवाब.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रणाम
      सहृदय आभार!!!

      Delete
  5. its very nice.. excellent... it describes the truth of life... inspirational too....

    ReplyDelete