Wednesday, 24 October 2012

समझने को कहाँ कुछ भी रहा अब


समझने को कहाँ कुछ भी रहा अब;
कब  वो समझा अपना, मेरा रहा कब.

कि खुद में जलने का भी मज़ा है;
मैने उस से शिकायत ही किया कब.

गैर होकर भी जो लगता था अपना;
अपना होकर वो गैर ही हुआ अब. 

जाँच तफ़सील से ज़रा कर लो तुम;
दिल मेरा था कभी उसका हुआ अब.

'मुसाफिर' हूँ अंधेरों से नहीं डरता हूँ;
अंधेरा अपना रहा, उजाला हुआ कब.

Tuesday, 23 October 2012

वो कहते हैं, ग़रीबी कम हुई है
















वो कहते हैं
ग़रीबी कम हुई है
जानते हो कहाँ कम हुई है
बस आकड़ों में कम हुई है
क्यों कि उन्होंने तय कर दिया है
कि एक दिन में २६ रुपये या ज़्यादे कमाने वाला ग़रीब नहीं है

मैं चाहता हूं
मैं उनकी जेब में २६ रुपये रख कर सड़क पर छोड़ दूं
और वो तय करें की उन्हे दिन कैसे गुज़रना है

मैं भी देखना चाहता हूं
कि लाखों की गाड़ी मे चलने वाले
करोड़ों अरबों रुपये गबन करने वाले
इस बढ़ती हुई महगाई में, २६ रुपये में  कैसे दिन कटते हैं, और 
किस तरह तय करते हैं, ३०% आम जनता के दिन का खर्च

Saturday, 13 October 2012

नाई की दुकान














नाई की दुकान पर पहुँचा ही था,
कि नई उम्र के लड़के ने तपाक से बोला,"बैठिए".
उम्र दराज चचा बैठे शांत.
इंतज़ार, हम उम्र ग्राहकों का.
जो उनके साथ बातें करते हैं,
चाय पीते हैं, और हजामत बनवाते है.
पर क्या हो अगर, उम्र दराज ग्राहकों का नज़रिया भी बदल जाए.
उन्हे भी नये लड़के से बाल कटवाना पसंद आए.

Wednesday, 3 October 2012

मजबूर आदमी













हर जगह मजबूर होता आदमी;
इंसानियत से दूर होता आदमी.

फिर बचाने को अपना वजूद;
आदमी से जूझता है आदमी.

दौड़ता है, भागता है भीड़ में;
आदमी को रौंदता एक आदमी.

शहर की गहरी अंधेरी जिंदगी;
खुद को कहाँ पहचानता है आदमी.

Tuesday, 2 October 2012

जिंदगी क्या है और क्या नहीं


लौट कर तुमको मिलेंगे फिर वहीं;
रास्ते जाते कहाँ हैं फिर कहीं.

चलना है, बस चलना ही है जिंदगी;
हैं कहाँ, कोई यहाँ मंज़िल कहीं.

तुम किनारों पर भले महफूज़ हो;
हो समंदर के बिना कुछ भी नहीं.

चाहतों को इस कदर न चाहना;
कि जिंदगी को लगे, है ही नहीं.

'मुसाफिर' हो आज़ाद दिल से सोचना;
कि जिंदगी क्या है, और क्या नहीं.

'एक शाम ग़ज़ल के नाम'



ग़ज़ल को बेहद संजीदगी से पेश करने, और उसी संजीदगी से सुनने, समझने और महसूस करने वाले लोग, उस एक शाम को अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स एण्ड लिटरेचर के म्युसियम हॉल में इकठ्ठे हुए और आगाज़ हुआ 'एक शाम ग़ज़ल के नाम' कार्यक्रम का| सत्यानारायण 'सत्या' जी की किताब 'यह भी एक दौर है' के लोकार्पण से शुरू हुई शाम, विनोद सिन्हा जी के ग़ज़लों व 'डायलॉग' के एक और खूबसूरत शाम के वादे के साथ ख़त्म हुई| महफ़िल में इस दौर के मशहूर शायरों व कुछ नये शायरों ने अपने शेर और ग़ज़ल पेश किए| ग़ज़ल को तरन्नुम में सुनाकर अपनी बात को और गहरे से महसूस कराने वाले शायरों ने ऐसी समाँ बाँधी जो सुनने वालों की जेहन में याद बनकर रहेगी| नये शायरों के ग़ज़ल को सराहा गया और उनकी हौसला अफजाई की गयी और उन्हे आगे और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिली| इस तरह की महफ़िल नये शायरों के लिए वैसे ही है, जैसे नये पौधों को खाद व पानी मिलना, जिस से उन्हे कुछ नया लिखने की सोच और उर्जा मिलती है|
ग़ज़ल एक सशक्त माध्यम है, और सुंदर प्रस्तुति इसके एहसास को और गहरा बना देती है| विनोद सिन्हा जी, श्री कांत सक्सेना जी, अमितेश जैन जी, अजय 'अज्ञात' जी, मनोज अबोध और आनंद द्विवेदी जी की ग़ज़लों ने जिंदगी, मोहब्बत और समाज पर की गयी बातों से महफ़िल में लोगों पर गहरा असर छोड़ा। महफ़िल में आये लोग इस शाम की याद संजोए कुछ नये लोगों से मिलने के खूबसूरत एहसास के साथ विदा हुए। मैं भी कार्यक्रम के संयोजक श्री मिथिलेश श्रीवास्तव जी (कवि तथा कला एवं थिएटर समीक्षक ) के साथ वहां से चल पड़ा ।