Friday, 25 May 2012


सोचता हूँ जब भी मैं कि जिंदगी ये जी लिया;
देखता हूँ मैं कि सब कुछ अधूरा रह गया.
वासना की भूख को जीवन भटकता ही रहा;
प्रेम अमृत के लिए जीवन ये छोटा रह गया.

जाऊं अब पूछूँ मैं किसे प्रेम की जीवंतता;
वासना में लिप्त मैं जो सदा मूर्छित रहा.
दौड़ता हूँ,भागता हूँ,कि बंधनों से मुक्त हूँ;
मुझको खबर ही ना रही,मैं उलझता ही रहा.

प्रेम हो, निर्लिप्त हो, वासना से मुक्त हो;
संभावना ऐसा घटित होने को थोड़ा ही रहा.
मुझसे मिला,हाथ थाम्हा,छोड़ कर चल दिया;
जिंदगी की उलझनों में मैं तो तड़पता ही रहा.

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