Sunday, 6 May 2012

खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.

इस तरफ भी वही है, वो ये मानता नहीं;
कैसे हों पार तैरना तो जानता नहीं.

अब तक मेरे वजूद को झुठला रहा है वो;
कहता है कि मुझ को पहचानता नहीं.

मैने कहा मैं बस मोहब्बत का पैगाम हूँ;
वो, मोहब्बत है क्या ये जानता नहीं.

जाना ये जब से दिल में इबादत का दौर है;
उसके सिवा कुछ भी मैं माँगता नहीं.

दुनिया की दौड़ तो है मंज़िल की चाह में;
उसके बगैर मंज़िल कोई मैं जानता नहीं.

मैं दौड़ता 'मुसाफिर' इस पार से उस पार;
खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.

5 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत बातें कहीं हैं आपने!! सादगी में भावनात्मक अभिव्यक्ति!!

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    1. प्रणाम,
      चरण स्पर्श.
      आज कल फेसबुक पर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं!!!!!
      सन्यास लेने का इरादा तो नहीं है वहां से.

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  2. आपका सहृदय आभार|
    रचना को दूसरों तक पहुँचाने के लिए चर्चा मंच का आभार|

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  3. Replies
    1. प्रणाम
      सहृदय आभार!!!

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