Sunday, 25 September 2011

मैं तुमसे अलग!


शाखों से अलग पत्ते,
हवा के हल्के झोंके से दूर चले जाते हैं
मैं तुमसे अलग,
इतना जड़ कैसे हूँ

जंगल में पेड़ से अलग सूखे पत्ते,
यूँ ही जल जाते हैं
मैं तुमसे अलग ,
अब तक जला क्यों नहीं

समंदर से अलग हुई लहर,
अपना अस्तित्व खो देती है
मैं तुमसे अलग,
खुद का होना सोचूँ कैसे

12 comments:

  1. वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. वाह ...बहुत खूब ।

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  3. dur ho jate hai shak se patte.........
    nahi mitti unki darare kabhi ........

    behtreen prastuti ke liye badhai .............

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  4. बहुत बढ़िया,
    बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....

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  5. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है

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  6. वाह! वाह! सुन्दर रचन...
    सादर..

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  7. आसान से शब्दों में.. गहराई से व्यक्त होती हुई भावना!! साधुवाद!!

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  8. आपका भाव आपके अंदर प्रेम की अथक कहानी कहना चाह रहा है । मेरे पोस्ट पर भी आकर मेरा मनोबव बढाएं ।
    धन्यवाद ।

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  9. सुन्दर ,सराहनीय रचना , बधाई

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें /

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  10. आपको दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

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