Wednesday, 29 June 2011

रास्ते का पत्थर

वो,
रास्ते का पत्थर,
निखरा है, कितनी
ठोकरें खाकर

जो,
ठिठुरता ठंड में,
तपता है, कड़क
धूप में, अजर

वो,
घूमता एक दिन,
पहुँचा शिवालय,
हो बच्चे के कर

वो,
मुस्कुराता वक्त पे,
और कभी फिर ,
इस भाग्य पर

जो,
ठोकरे दे कर गए,
वो मिलें हैं, देखो
सर झुका कर

7 comments:

  1. कविता में दूसरे और तीसरे बंद की जरूरत नहीं है।

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  2. जी आपकी टिप्पणी के बाद पढा तो महसूस किया.

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  3. वक्त और भाग्य की ही बात है कि ठोकरे मारने वाले झुक कर सलाम करते हैं ...
    बेहतरीन !

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  4. अंतिम बंद बढ़िया और सार्थक.

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  5. यह कविता भले ही पत्थरके विषय में हो, पर स्वयम में मील का पत्थर है!!

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  6. wah thoker kha kar bhi na samble to insaan ka naseeb


    raste ke patter apna haq ada karte hai................

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