Monday, 30 May 2011

मैं पतंग

हमारे मित्र निशांत जी ने आग्रह किया ................"हो सके तो कभी उस मज़बूरी को भी कविता में बयाँ कीजिए, जहाँ पतंगे आसमान में उड़ने से थक हार कर जमीन में अपने उड़ाने वाले हाथों में लौटना चाहता है, लेकिन अमूमन समय की आंधी में उसकी परिणीति कट कर किसी कोने में विलुप्त हो जाने में होती है।" ये गीत उनके लिए ........

मैं पतंग तूँ मुझको उड़ाये;
दूर मुझे ले जायें हवाएं
प्रेम डोर से तुझसे जुड़ी मै;
सोचूँ कब वापस तूँ बुलाये

मैं जो तुझसे मिलना चाहूँ;
डोर तूँ ख़ीचे बस यही उपाय
डोर कहीं कट जाए अगर तो;
वक़्त के झोकें दूर ले जायें

तेरे एक इशारे पर मैं;
इठलाउँ इतराउँ हाय!
दूर मैं तुझसे हवा से लड़ती;
दर्द मेरा कोई समझ पाये

10 comments:

  1. पतंग के माध्यम से दिल के दर्द को आपने बाखूबी बयान किया है♥3

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  2. सही है,त्रिपाठी जी...प्रेम डोर एसी ही होती है...

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  3. डोरी कटने का डर

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  4. प्रेम डोर से तुझसे जुड़ी मै;

    yahi patang aaj tang kar gai.
    ho sake to yah post bhi dekhen

    कनकैया-कनकौवा का कर काँचा माँझा
    आकाश-पुष्प की खातिर भागे भटके-झूरे ||
    Thanks for visiting DINESH ki.....

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  5. प्रेम डोर से तुझसे जुड़ी मै;
    बहुत सुंदर प्रस्तुति ....

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  6. पंतग तो उड़ने के लिए ही होती है। उसका महत्‍व आसमान में ही है,जमीन पर नहीं।

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  7. सुंदर प्रस्तुति ....

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  8. कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
    इसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !

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  9. उम्दा रचना.....
    कुछ ऐसे ही विचार बहुत पहले गद्य रुप में आये थे, जब समय मिले-देखियेगा:

    http://udantashtari.blogspot.com/2008/07/blog-post_18.html

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