Monday, 24 August 2015

प्यार

प्यार का एक नूरानी असर माँ के चेहरे पर झुर्रियों में लिखी आयतों में पढ़ने की कोशिश करता हूँ,
और माँ को हर एेसे ख़ूबसूरत चेहरे के पीछे छुपे ख़ूबसूरत दिल से, आँखो से झाँकते हुए देखता हूँ,
और देखता हूँ, आँखो के कोरों पर ठहरी हर दिन प्यार की रोशनी में, ओस को चमकते हुए
कुछ पिताओं के चेहरे भी माँ की तरह ख़ूबसूरत हो जाते है,
शर्त बस ये है कि वो अपने बाप होने के अहंकार से बाहर निकल आये
प्रेम वहाँ भी अपना डेरा डाले रहता है, बस अहंकार पर्दे की मानिद ढ़क लेता है,
सब कुछ माँये उससे कब का पीछा छुड़ा लेती है

Sunday, 9 August 2015

नेता,जनता,धर्म,स्त्री

नेता-भांड,
सब कुछ बेच सकता है,
ख़ुद के ज़मीर के बिक जाने के बाद।

जनता-हिजड़ा,
ताली पीटती है किसी भांड के बोलने पर।
नाचती है जीतने पर,नये शुभ अवसर पर।
नहीं कोई इंसाफ़, समाज से अलग जीने पर।

धर्म-बाज़ार,
सब कुछ बिकता है भय दिखा कर।
शरीर की लोलुपता को केसरिया हरा पहना कर।

स्त्री-प्रकृति,
लड़ती ख़ुद के अस्तित्व को पुरूष से।
गर्भ में, घर में, समाज में उन को जन्म दे कर।

Saturday, 8 August 2015

महसूस कर सकता हूँ

महसूस कर सकता हूँ
ख़ुश्बू को हवाओं में
खुद को तुम्हारी बाहों में
तुम्हारी तस्वीर निगाहों में
महसूस कर सकता हूँ
जैसे बादल घिर आए हों फ़िज़ाओं में
जैसे तुम दूर होकर भी हो निगाहों में
जैसे झील उतर आये आखों में
महसूस कर सकता हूँ
जैसे पतंग से जुड़ी डोर
जैसे बसंत मे नाचे मोर
जैसे धरती तड़पे, घन बरसे घनघोर
महसूस कर सकता हूँ
जैसे स्वाती के लिए चातक
जैसे चाँद के लिए चकोर
जैसे घन के लिए मोर
महसूस कर सकता हूँ

संवेदनाए

कई बार लगता है
तुम तक ना पहुँच पाना जैसे जिंदगी मे एक हार है
एक हार जो मैने खुद चुनी है
और देखता हूँ लोगों को चुनते हुए अपनी हार
क्यों की उन्होने चुना है उचाईयों को चढ़ना
और सच यही है की उचाईयों को चढ़ने के इस उपक्रम में
हम अपनों से बहुत दूर हो जाते हैं
और धीरे धीरे खो देते है संवेदनाए
वो संवेदनाए जो ताक़त थी हमारी
और हम हार जाते हैं उचाईयों पर
हम खो देते हैं, खुद को संवेदनाओं के साथ