Wednesday, 25 February 2015

रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं

तेरी आस लगाये बैठे;
गुज़रे जाने दिन कितने है।

अब तो ये आलम है देखो;
लोग मुझे पागल कहते हैं।

तुम से नहीं तो यादों से हम;
रोज़ ही आठ पहर मिलते हैं।

दो से आठ पहर चढ़ते फिर;
ज्यों लहरें और सागर मिलते हैं।

कुछ तो सुध कर लो मेरी अब;
रोज़ 'मुसाफिर' सा फिरते हैं।

ज़िंदगी पर न यूँ गुमां कीजै

भले ही मिले दुश्मनों की तरह;
उस से फिर भी बस वफ़ा कीजै।

हम ने देखा है, हथेली पर उगते सरसों;
बस ज़रा दिल में हौसला कीजै।

देश बँटता है, जब लोग बँटते है;
नेता जी कुछ तो अब हया कीजै।

कल सड़क पर अाप के गिरने की बारी;
थोड़ा रूक कर फिर तजुरबा कीजै।

मौत का दुश्मन या दोस्त ही है कौन;
अपनी ज़िंदगी पर न यूँ गुमां कीजै।