Thursday, 24 October 2013

ओ साधु रे ........













ओ साधु रे ........
ओ साधु रे ........

साधु नाम पाया, लेकिन जिया कहाँ रे.
रे साधु जिया कहाँ रे.

साधु मन पाया, लेकिन बचा कहाँ रे.
रे साधु बचा कहाँ रे.

जले तन तपे मन तो साधु बना रे.
हाँ साधु बना रे.

दुनिया के फेरे में फिर जाने कहाँ रे.
साधु जाने कहाँ रे.

मन फेरा साधु तो तूँ बचा कहाँ रे.
साधु बचा कहाँ रे.

फिर से जी ले जीवन ज़रा ओ प्यारे.
साधु हो जा रे.

तन से न बन, बन मन से साधु रे.
ओ साधु रे ....
ओ साधु रे ....



Friday, 11 October 2013

दर्द यूँ भी अदाओं से कम निकलता है.

यमुना प्रसाद दूबे 'पंकज' जी ने आग़ाज किया था उसी को अंजाम देने की कोशिश है 

ग़ज़ल का मतला,ख़ास आप की महफिल के लिये
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रूह जलती है,तब पिघलता है।
दर्द,यॅू ही नही निकलता है।














चाँद और हम काँपते है रात भर छत पर;
वो मेरा चाँद है जो बहुत कम निकलता है.

हँसते है हम भी नमी आँखों में ले कर;
दर्द यूँ भी अदाओं से कम निकलता है.

तुम मिलोगे तो करेंगे बहुत सारी बातें;
देखो किस दिन ये मुक़द्दर मेरा निकलता है.

हाँ दर्द से मेरे सभी ही हैं थोड़ा संजीदा;
कि गैर के दर्द से जान कब निकलता है.

हो गयी शाम जब जिंदगी की ढलते ढलते;
'मुसाफिर' फिर कोई घर से कहाँ निकलता है.