Friday, 25 May 2012

अचानक एक ख़याल आया;
जीवन के सन्दर्भ में 
प्रेम और भोग के सन्दर्भ में.
प्रेम एक उन्मुक्त आकाश देता है;
जिसमे आप हर तरह के बंधन और भय से मुक्त हैं.
सदा सर्वदा के लिए.

भोग जीवन एक बंधन है;
हम बंधन में होते है.
वैसे ही जैसे खूटें से बँधी गाय;
अगर मुक्त भी कर दो तो,
उसे नही पता कहाँ जाना है.
और लौट कर खूँटे के पास ही आती है.

पर इनसे परे एक चेतना है हममें;
जो हमें भोग के रसातल बंधन से,
प्रेम के उन्मुक्त आकाश तक ले जाती है.
और उस पल में आप आकाश को उन्मुक्त भाव से जीते हैं.
बिना बंधन के.
पूर्ण जीवंत.

सोचता हूँ जब भी मैं कि जिंदगी ये जी लिया;
देखता हूँ मैं कि सब कुछ अधूरा रह गया.
वासना की भूख को जीवन भटकता ही रहा;
प्रेम अमृत के लिए जीवन ये छोटा रह गया.

जाऊं अब पूछूँ मैं किसे प्रेम की जीवंतता;
वासना में लिप्त मैं जो सदा मूर्छित रहा.
दौड़ता हूँ,भागता हूँ,कि बंधनों से मुक्त हूँ;
मुझको खबर ही ना रही,मैं उलझता ही रहा.

प्रेम हो, निर्लिप्त हो, वासना से मुक्त हो;
संभावना ऐसा घटित होने को थोड़ा ही रहा.
मुझसे मिला,हाथ थाम्हा,छोड़ कर चल दिया;
जिंदगी की उलझनों में मैं तो तड़पता ही रहा.

Sunday, 6 May 2012

खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.

इस तरफ भी वही है, वो ये मानता नहीं;
कैसे हों पार तैरना तो जानता नहीं.

अब तक मेरे वजूद को झुठला रहा है वो;
कहता है कि मुझ को पहचानता नहीं.

मैने कहा मैं बस मोहब्बत का पैगाम हूँ;
वो, मोहब्बत है क्या ये जानता नहीं.

जाना ये जब से दिल में इबादत का दौर है;
उसके सिवा कुछ भी मैं माँगता नहीं.

दुनिया की दौड़ तो है मंज़िल की चाह में;
उसके बगैर मंज़िल कोई मैं जानता नहीं.

मैं दौड़ता 'मुसाफिर' इस पार से उस पार;
खोजता हूँ खुद को खुद को जानता नहीं.