Thursday, 14 July 2011

वो प्यार कहाँ रे.............


बरसे हैं मेरे नयन
पर बहार कहाँ रे
तूँ जो मुझसे कहता था
वो प्यार कहाँ रे.

नयनन स्नेह रस
झर-झर जाए
तुझको मेरी सुध कहाँ
वो प्यार कहाँ रे.

मैं जागा रात भर
तू सोये नींद भर
जागी जागी रातों का
वो प्यार कहाँ रे.

Sunday, 3 July 2011

सोच के डब्बे


हम इंसान है
हमारी सोच
हमारे चारो तरफ कि बातों पर निर्भर करती है
बचपन से लेकर अब तक की
सारी बातों पर
हम सोच और विचार के डब्बों में बंद होते हैं
कुछ बहुत बड़े डब्बों में बंद हैं
कुछ बड़े डब्बों में
कुछ छोटे
और कुछ बेहद छोटे डब्बों में
डिब्बों का आकर हमारे आयाम तय करता है
कई बार हम अपने चारो तरफ के इस डब्बे को लोहे सा मजबूत बना देते हैं
और उससे बहार नहीं आना चाहते
हाँ कई बार दीवारें कितनी मजबूत हों
वक़्त के साथ हमारी सोच बदलती है
और एक दिन हम उनसे बहार ही जाते हैं
यहाँ मैंने जो लिखा
वो मेरे उपर भी लागू है
बिलकुल उसी तरह
पर हम सभी को तोडनी है
ये दीवारें
और बना लेंगे एक रास्ता
एक दिन ये होगा जरूर..........